"मानवधर्म परिचय"
"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती
"मानवधर्म परिचय पुस्तक"
प्रकरण क्रमांक (३७)
"परमात्मा एक सेवक मानव मंदिर"
प्रकरण क्रमांक:- (३७) "परमात्मा एक सेवक मानव मंदिर"
महानत्यागी बाबा जुमदेवजीने परमेश्वर प्राप्ती करने के पश्चात आध्या्मिक ज्ञान से सेवकों के शारिरीक दुःख नष्ट कर उन्हें आर्थिक लाभ मिलना चाहिये। इस दृष्टी से सहकारी बैंक और दुध उत्पादक संस्था स्थापित की। उनका लाभ सेवकों को मिलने के কাरण उनका जीवनमान सुधारणे का सामाजिक कार्य बाबाने किया, बाबांने "मानवधर्म" स्थापन करने पर मानव को उसकी अनुभूती रहे इसलिये "मानव मंदिर" रहना आवश्यक है ऐसा उन्हे लगने लगा। इसलिये सबसे पहले उन्होने परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ, नागपूर यह धर्मदाय संस्था स्थापन की।
उक्त संस्था की ओर से इस मार्ग का प्रगट दिन हर साल सेवक मनाते हैं। तथापि मंडल के सदस्यों के लिये, मानव जागृती के कार्य करने के लिये बाहरगाँद के सेवकों को आराम करने के लिये, बाहर गांव के सेवकों के बच्चो कों उच्च शिक्षा हेतु रहने के लिये छात्रावास तथा अन्य सामाजिक कार्य और मंडल व्दारा समय-समय पर होनेवाले अन्य कार्य करने के लिये स्वयं की भव्य वास्तु होना चाहिए ऐसी सेवकों की बहुत दिनों से इच्छा थी। इसी तरह हर वर्ष मानव जागृती के कार्य के लिये हमेशा बडी जगह देखकर कार्यक्रम करना पडता था। इस मार्ग कें सेवकों की दिन-ब-दिन बढती संख्या ध्यान में रखते हुए और संघटना के दृष्टिकोन से कोई भी जगह किराये पर लेने से वह अधुरी पडती थी। इसलिये मंडल की खुद की भव्य वास्तु रहनी चाहिए। जिससे हर वर्ष अन्य भवन किराये पर लेने रो जो अधिभार सेवकों पर होता था वह बचेगा और उसी राशि से स्वयं का भवन निर्माण होगा। इस उद्देश से और सही मायने में वह भवन "मानव मंदिर" के समान बने ऐसा विचार दि. १५ फरवरी १९८० को महानत्यागी बाबा जुमदेवजी की प्रमुख उपस्थिती में हुई सेवकों की बैठक में व्यक्त किया। बाबांको सेवकोंने इस विषय पर मार्गदर्शन करने के लिये बिनती की।
सेवकों की बिनती के अनुसार बाबांने सेवकों को मार्गदर्शन करते हुए बताया की आपने रखे हुए विचार योग्य है, लेकीन पैसा लगेगा। उस दृष्टिकोन से सेवकों ने आर्थिक सहायता करने की इच्छा रखनी चाहिए और इसके लिये सामान्यतः बीस हजार वर्ग फीट जगह नागपूर शहर में खोजनी होगी। बाबांने आगे का की सेवकोंने मानव-मंदिर की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अभी से दान देन प्रारंभ करना चाहिए। तदूनुसतार प्रथम दिन रु. १००१ श्रीमती नागाबाई किसन घायड इन्होने २८/२/१९८० को दिया।
भवन की आवश्यक जगह के लिये इस मंडल के 3ध्यक्ष श्री. महादेवराव कुंभारे इनकी अध्यक्षता में एक शिष्टमंडल नागपूर सुधार प्रन्यास के कमिश्नर को १४ सितंबर १९८२ को मिले। वर्धमान नगर, नागपूर स्थित "स्मॉल फॅक्टरी एरिया" क्षेत्र में धर्मदाय संस्था के लिये आरक्षित जगह बाबत शिष्ट मंडल ने कमिश्नर से चर्चा की। इस जगह बुनकर समाज के श्री. हेडावू मुख्य कार्यपालन अभियंता(उएए) कार्यरत थे महानत्यागी बाबा जुमदेवजी और इस संस्था के बाबत् सपूर्ण जानकारी थी। इसलिये उन्होने वहाँ के कमिश्नर साहब को इस संस्था की संपूर्ण जानकारी देकर बताया की यह एक बहुत बडी संस्था है। और उसके संस्थापक को परमेश्वरी कृपा प्राप्त हुई है और वह निष्काम भावना से मानव जागृती के कार्य नियमित कर रहे हैं। वह स्वयं त्यागी है। संस्था की चार प्लॉटस् की मॉँग है। अतः उन्हें सुधार प्रन्यास की जगह देने में कोई आपत्ती नही है। इतना ही नही, तो उन्होने इस संस्था को जगह दिलाने के लिये बहुत प्रयास किये और उसके लिये कमिश्नर के मन में सद्भावना जगायी। तद्नुसार नागपूर सुधार प्रन्यास के पत्र क्र. ८९८० दि. ६ जनवरी १९८४ को निकले पत्रानुसार वर्धमान नगर स्थित स्मॉल इण्डस्ट्रिज एरिया इस क्षेत्र में प्लॉट नं. ५० सी से ५० एफ ऐसी २०७६७ वर्गफिट वाली जगह मंडल को देनेबाबत् पत्र दिया और प्लॉट के संबंध में संपर्ण करारनामा होने पर पत्र क्र. ६३७९ दि. १७ फरवरी १९८४ अनुसार दि. २४ फरवरी १९८४ को जगह का कब्जा मंडल को मिला।
इस जगह की किमत मात्र ४ रु. प्रतिफिट लगायी और यह जगह "परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ, नागपूर" इस नाम से पंजीकृत की गई। इस समय तक बहुत से सेवकोंने भवननिधी के नाम से १००१ रु. दान दिया था। इस कालावधी में महानत्यागी बाबा जुमदेवजी स्वयं भवननिरधी के लिये दान इकठ्ठा करने हेतु कुछ सेवकों के साथ गाँवो-गाँव दौरे पर गये। उन्होने अपने मार्गदर्शन से सेवकों को जागृत किया। "मानव मंदिर" बनाने के लिये प्रत्येक सेवकों के परिवार से कम से कम १००१ रु. दान करे ऐसा बताया। बाबांके इस आदेश को प्रत्येक सेवक ने बडे उत्साह से साथ दिया और धीरे-पीरे राशि जमा होने लगी। बाबांके सभी सेवक गरीब थे। बाबांकी इच्छा ऐसी थी की, इस देश में ही नही अपितु संपूर्ण दुनियामें जो भवन निर्माण हये है वे सभी धनवान लोगों के है। लेकीन परिश्रमी मेहनत मजदूरी करनेवाले लोगों का भवन नही है। इसलिये उन्हें इस देश को यह दिखाना था की, गरीब लोग भी धनवानों की अपेक्षा अच्छा कार्य कर सकते है इसलिये गरीबों की भी इज्जत करनी चाहिए और उन्हें मानव के समान ही गरीबां की भी इज्जत करनी चाहिए औ उन्हें मानव के समान ही व्यवहारित करना चाहिए। उन्हें समाजने बेकार (निकृष्ठ) नही समझना चाहिये। और यह भवन सेवकों के ही राशि से निर्मित हो, ऐसी बाबा की इच्छा थी और बाबा का कहना ऐसा था की, इस देश में धनवानों के हाथ में सत्ता है और बाबा के साथ गरीब सेवक है। अत: गरीबों के हाथ मे संस्था की सत्ता रहे, वह धनवानों के हाथ में न जाये। इसलिये इस संस्था की ओर से स्थापित हुई बैंक में अनेक धनवान लोग आते थे। वह लोग भवन निर्मिती के लिए सहायता देने लिए अपनी इच्छा बाबा के पास व्यक्त करते थे। फिर भी बाबा उनकी इच्छा को नम्रतापुर्वक अस्वीकृत करते थे। इस तरह धनवान लोगों से दान लेना टालते रहे।
"मानव मंदिर" की जगह मिलने पर भवन आर्किटेक्ट के नाम से प्रसिध्द आर्किटेक्चर श्री. व्ही.डी.पुसदकर इन्हें भवन निर्माण के लिये मनोनीत किया गया। तत्पश्चात वहाँ कुआँ और कंपाऊन्ड (चार दिवारी) बनाने हेतु कोटेशन मंगवाये गये और दिनांक १४ अप्रैल १९८४ को कोटेशन खोले गये। श्री. अशोक नंदनवार इनका कम रेट का कोटेशन होने से और उसमें भी ३ १/२ प्रतिशत छुट देने से वह काम उन्हें दिया गया। दिनांक १५ अप्रैल १९८४ को कुएँ की जगह का भुमीपुजन श्री. नेमाजी मौँदेकर, उपाध्यक्ष, परमात्मा एक सेवक नागरिक सह. बैक, नागपूर इनके शुभहस्ते हुआ। और उसी दिन से प्रत्यक्ष कार्य प्रारंभ हुआ। तत्पश्चात भवन का नक्शा बनाकर उसका २२ लाख का एस्टिमेट श्री. पुसदकर इनसे तैयार किया गया। १५ नवम्बर १९८४ से २५ नवम्बर १९८४ तक भवन हेतु निर्विदा मंगाकर दि.२६ नवम्बर १९८४ को निविदाएँ खोली गई। इसमें भी कम रेट की निविदा श्री. अशोक नंदनवार की ही थी। नक्शा बनाते समय श्री. पुसदकर साहब ने बाबांको भवन कैसा बनाये यह पुछने पर बाबांने उन्हे बताया की "मानव मंदिर" ऐसा बनाये जिससे इस मानव मंदिर में प्रवेश करनेवाला प्रत्येक व्यक्ती प्रसन्न होना चाहिए। निविदा खोलने के समय मंडल के पास केवल ४ लाख रुपये जमा थे।
इन चार लाख रुप यों में भवन का निर्माण प्रारंभ करने से और २२ लाख रुपये निर्माण कार्य के लिये आवश्यक राशि इकठ्ठा नही होती तो नुकसान पु्र्ती के लिये बिल्डर दावा करेंगे, इसलिये निव्दा रद्द कर, जबतक निर्माण कार्य के लिये आवश्यक राशि इकठ्ठा नही होती तब तक निर्माण कार्य स्थगित रखे, ऐसा बाबांने मंडळ को आदेश दिया। श्री. अशोक नंदनवार की कम रेट की निविदा थी फिर भी उसमें ३ प्रतिशत छुट देने के लिये बाबाने बताया और मंडलने उस आवेदन पर विचार विमर्श कर उसे दिनांक ५ दिसम्बर १९८४ को भवन निर्माण का कार्य दिया।
महाराष्ट्र राज्य शासन की ओर से खाद्यान्न एवं नागरी आपुर्ती विभाग, नागपूर की ओर से ३९१० बोरी सिमेंट की अनुज्ञा ली गई। तथा स्टील अॅथॉरिटी ऑफ इंडिया की और से ५५ टन लोहा प्राप्त किया। तत्पश्चात जगह का भुमिपुजन दि. १६ दिसंबर १९८४ को महानत्यागी बाबा जुमदेवजी इनकी प्रमुख उपस्थिती में डॉ. मनो ठुब्रीकर, असोसिएटेड प्रोफेसर एवं हेड ऑफ दी डिपार्टमेन्ट ऑफ सर्जरी, व्हर्जिनिया मेडीकल सेटर, व्हर्जिनिया, अमेरिका, य.एस.यू. इने करकमलो व्दारा हुआ। उसी दिन इस परिसर में वृक्षारोपन का कार्यक्रम संपन्न हुआ।
भवन निर्माण का कार्य लगभग दो वर्ष तक चालू रहा। इस दौरान बाबाने सभी सेवको की गाँव-गाँव में ऐसा आदेश दिया की प्रत्येक सेवक ने १००१ रु. कम से कम और यशाशक्तीनुसार २००१-५००१ और जिनकी तीव्र इच्छा हो उन्होने दस हजार एक रुपये भवन निरधी दान देवे। बाबांने यह नििधी इकठ्ठा करना वे लिये कई महिने गाँवो-गाँव लगातार दौरा किया। बाबा के साथ हमेशा पांच-छः सेवक रहते थे| बाबा अपने गावं मे। आ रहे है, यह सेवकों को मालूम होते ही वे सब लोग एक साथ मिलकर आते थे। बाबा के आदेश का स्वखुशी से पालन करते थे। यह दौरा बाबांने साईकील, बैलबंडी, मोटर जैसा । हो वैसा, धूप बारीश, ठंड इनकी परवाह न करते हुए किया। तथापि निर्माण कार्य के
दौरान वे स्वयं निर्माण कार्य में ध्यान देते थे। क्योंकी वे भी कॉन्ट्रॅक्टर थे। निरधी इकठ्ठा। करते समय बाबा को किसी प्रकार की परेशानी अथवा कठिनाई निर्माण नही हुई और श्री. अशोक नंदनवार इन्होने भी समय पर राशि नही मिलने के कारण निर्माण कार्य में बाधा उत्पन्न नही की।
इस प्रकार इस संपूर्ण भवन निर्माण का कार्य लगभग २६ लाख ७० हजार रुपयों । का हुआ। और "मानव मंदिर" की भव्य वास्तु गरीबों के परिश्रम की राशि से निर्मित हुई। इस भवन का वास्तुपुजन २५ नवम्बर १९८६ को महानत्यागी बाबा जुमदेवजी इनके करकमलों व्दारा किया गया। क्योंकी इस वर्ष (१९८६ में) भगवंत का प्रगट दिन २५ अगस्त १९८६ को मनाया गया था। तब से तीन महिने पश्चात इस वास्तु का पूजन किया गया। क्योंकी बाबांने ऐसा मार्गदर्शन किया की, बाबांने एक परमेश्वर की प्राप्ती करने के बाद विदेह (निराकार) अवस्था में तीन महिने पश्चात गृहस्थी में प्रवेश किया। उस वक
से इस भवन में "प्रगट दिन" मनाने के बाद तीन महिने पश्चात प्रवेश करना। प्रत्येक वर्ष "प्रगट दिन" १५ अगसत को वार्षिक हवन कर १५ नवम्बर को सामुहिक हवन कार्य भवन में किया जाता है।
ऐसी यह गरीब लोगों की संपूर्ण दुनिया में नही है ऐसा निराला "मानव मंदिर" की भव्य इमारत (भवन) सुसज्ज स्थित है। इस भवन में अंदर प्रवेश करते ही सही मायने में मन को शांति मिलती है। इसी जगह गरीब विद्यार्थीयों के लिये और उच्च शिक्षा हेतु आनेवाले बाहरगांव के सेवकों के बच्चो के लिये छात्रावास भी तैयार किया है। उन्हे शिक्षा में सहायता मिले इसलिए वाचनालय भी शुरु करने में आया है। इतना ही नही तो उन बच्चों की सेहत स्वस्थ रहे इस दृष्टि से क्रिडा मंडल स्थापित कर क्रिडांगण बनाया गया है। उन्हें खेल का संपूर्ण साहित्य मंडल की ओर उपलब्ध है। इस बात का लाभ अन्य सवक भी लेते है।
इस भवन में हर वर्ष समय-समय पर मानव जागृतीपर चर्चासत्र होता है। हर वर्ष १५ नवम्बर को होने वाले हवन कार्य में हजारो सेवक उपस्थित होते है। हर परिवार को सेवक अपने घर से खाने (भोजन) का डिब्बा लाते है। तथा हवन कार्य एवं बाबा के मार्गदर्शन के पश्चात् सामुहिक रुप से भोजन करते है। और सभी लोग सामुदायिक आनंद मनाते है।
नमस्कार..!
लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।
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