"मानवधर्म परिचय"
"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती
"मानवधर्म परिचय पुस्तक"
प्रकरण क्रमांक (२६)
"असाध्य रोग"
प्रकरण क्रमांक:- (२६) "असाध्य रोग"
मानव धर्म को मानव ने अपनाया तो उसके असाध्य रोगभी साध्य होते है। अर्थात असाध्य रोगों से पिडीत व्यक्ती भी ठीक होता है। उदाहरणार्थ हृदयविकार, कोड, महारोग, कॅन्सर, टी.बी., मुळव्याध(बवासीर), कावीळ(पिलीसा), मधुमेह इत्यादी इसके अनेक उदाहरण के रूप में इस मार्ग के सेवकों ने अनुभव बताए है। इन असाध्य रोगों में वंशपरंपरागत एवं संसर्गजन्य ऐसे कोई रोग है। इस मार्ग में सभी प्रकार के रोग नष्ट होते है।
जब उपरोक्त कोई भी रोग उदा. टी.बी., महारोग (कुष्ठ), कोड, मधुमेह (इायबिटिज), मुळव्याध(बवासीर), हृदयविकार मानव को होने पर जब वह डॉक्टर के पास जाता है, तब सर्वप्रथम डॉक्टर पुछताछ करते है की उसके वंश (खानदान) में इससे पूर्व यह रोग किसी को कभी हुआ है क्या? उसके पिछे यही कारण है की यह रोग वंशपरंपरागत (खानदानी) होता है। इसलिये ये रोग होते है और उसका इलाज करने पर भी वह रोग उस खानदान में आगे किसी को नही होगा इसकी ग्यारंटी डॉक्टर से नही मिलती। इसका कारण "खून का रिश्ता" ऐसा वे बताते है।
महानत्यागी बाबा जुमदेवजी ने इस पर बहुत संशोधन किया है और इन असाध्य रोगों पर मात देकर इस मार्ग में वे साध्य किये है। इनका संशोधन इस प्रकार है।
डॉक्टरों के निष्कर्षानुसार वंशानुगत (पीढी-दर-पीढी) बीमारी होने का कारण "खून का रिश्ता" होने से वह उस परिवार में हर एक को कम ज्यादा प्रमाण में होना चाहिए लेकीन ऐसा होता नही वह एकाध में ही रहता है। कभी कभार दो-तीन पीढियों के बाद आता है। उस परिवार (खानदान) में वह रोग जिस व्यक्ती को हुआ होगा। उस व्यक्ती के मरणोपरान्त उसकी आत्मा को शांती न मिलने से और मोक्ष न मिलने से भटकता रहता है। वह आत्मा जिस परिवार से बाहर आती है। वह पुनः उसी परिवार में जाने की कोशिश करती है। और लगभग वहीं जाती है। तब उस परिवार में वह आत्मा जाने पर जिसे वह स्पर्श करती है उसे वह बिमारी जकडती है। और जब तक उस आत्मा को शांती अथवा मोक्ष नही मिलता तब तक वह रोग उस परिवार में वंशानुगत होता रहता है।
जिसे व्यक्ती को ऐसा रोग हुआ है वह व्यक्ती इस मार्ग में आने पर उस पर भी वह देवीशक्ती कार्य करती है। और जिस आत्मा का उसे स्पर्श हुआ होगा उस पर भी मात करती है। तथा उस आत्मा को लक्ष चौरासी भोग से मुक्त करती है। वह भटकती नही, और उसके बाद वह आत्मा किसी को भी स्पर्श नही करती। इसलिये उस परिवार में वह दुःख पुनः किसीको भी नही होता। इस प्रकार वंशानुगत रोग नष्ट होते है, और उस परिवारकी उस रोग से मुक्तता (छुटकारा) होती हैं।
यही सिध्दांत संसर्गजन्य रोगों के लिये लागू होता है कुछ संसर्गजन्य रोग उदा. कावीळ(पिलीया) यह धूलीकरण से होता है। वातावरण में बदलाव से अनेक रोग उत्पन्न होते है। वातावरण बदलना यह भी उस सृष्टिनिर्माता परमेश्वर का कार्य है। वही दैवीशक्ती इस कदर मात कर सकती है। इसलिये यह रोग भी इस मार्ग में उस दैवी शक्ती के कारण ठीक होते है।
नमस्कार...!
लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।
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🔸 ऊपर लिखित आवरण "मानवधर्म परिचय" पुस्तक ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।
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संक्षिप्त में बहुत बढ़िया जानकारी देने के लिए आभार।
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