Wednesday, May 20, 2020

प्रकरण क्रमांक:- (२२) "आत्मप्रचिती"

                  "मानव धर्म परिचय"


"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती



             "मानवधर्म परिचय पुस्तक"

                 प्रकरण क्रमांक (२२)

                     "आत्मप्रचिती"


प्रकरण क्रमांक:- (२२) "आत्मप्रचिती"


          एक दिन महानत्यागी बाबा जुमदेवजी हमेशा की तरह कुछ सेवकों को साथ लेकर मानव जागृती के बारे में मार्गदर्शन करने हेतु रामटेक तालुका के भंडारबोडी इस गांव में दौरे पर गये थे। वहाँ परमात्मा एक सेवक सहकारी दुग्ध उत्पादक संस्था, भंडारबोडी में आराम के लिये रुके थे। यह संस्था बाबा के मार्गदर्शन में स्थापित हुई है। यह दौरे के दिन भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष के थे। इस कृष्णपक्ष को पितृपक्ष भी कहते हैं। हिंदु धर्म के लागे इस पितृपक्ष में अपने पारिवारीक पूर्वजों की मृत्यू की तिथी को श्राध्द करते है। इसलिये इस पक्ष को असाधारण महत्व है।

        भगवत कार्य की चर्चा बैठक समाप्त होने पर बाबांने उस स्थान पर मुकाम किया। दुसरे दिन सबेरे बाबा स्नानादि निपटाकर उस संस्था के प्रांगण में अकेले बैठे थे। उस समय उन्हें यकायक याद आया की इस समय श्राध्दपक्ष शुरु है एवं आज मेरे पिताजी का मुक्तीदिन है। तब वे स्वयं ही मन में विचार करने लगे की, आज की तिथी को उनके पिता को देवाज्ञा होकर इस मृत्युलोक से मुक्ती मिली थी। वे इस पृथ्वीतल (दुनिया) को छोडकर गये थे। वे मन ही मन बोले, यदि मैं स्वयं के घर नागपूर में होता तो पिताजी के नामपर दिनभर उपवास करता और शाम को भगवान बाबा हनुमानजी को भोग लगाकर एक समय ही भोजन किया करता, लेकीन अब वैसा करना संभव नहीं है। इन विचारों में ही वे चिंतामग्न हुए और इन विचारों में ही देहभान भुलकर वह निराकार में आये। उनकी अंतरात्मा से निम्नलिखीत संवाद बाहर निकले। जो उन्होने अपने ही कानों से सुने।

         उनकी अंतरात्मा से आवाज निकली की, "सेवक तु पागल हो गया। किस बात की तु चिंता कर रहा है"। तब महानत्यागी बाबा जुमदेवजी ने भगवान बाबा हनुमानजी से कहा, "बाबा, आज मेरे पिताजी का मुक्ती दिन है। अगर मैं अपने घर पर होता तो उनकी याद में एकही समय भोजन करता। लेकीन मैं बाहरगांव में हूँ। मैं कुछ भी नहीं कर सकता।" बाबा के यह शब्द सुनकर भगवान बाबा हनुमानजी ने महानत्यागी बाबा जुमदेवजी को कहा, "सेवक सुन, तेरे पिता का शरीर और मेरी आत्मा एक थी। तु एक भगवान को मानता है, इसलिये तेरे पिता मरने के बाद वह आत्मा तेरे पिता का शरीर छोडकर मुझमें विलीन हो गयी। और तुने तेरे पिता का शरीर जलाकर राख कर दिया। अब बोल सेवक, तु राख की पुजा करता है या मेरी।" भगवंत के यह शब्द सुनकर महानत्यागी बाबा जुमदेवजी ने कहा, "भगवान आज से मेरे मन का शुध्दीकरण हुआ। मैं इस तरह के पुराने विचार मेरे दिल में कभी नही लाऊँगा और भगवान, में तेरीही पुजा हमेशा करुंगा।''ऐसा बाबांने भगवान को सत्य वचन दिया।

       इस प्रकार भगवंनततने (बाबा हनुमानजीने ) महानत्यागी बाबा जुमदेवजींको आत्मप्रचिती दी। तब से बाबांने सेवकों को मृत्यु हुए लोगों की पुजा करना बंद कराया।

नमस्कार..!

लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में  "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।

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🔸 ऊपर लिखित आवरण "मानवधर्म परिचय" पुस्तक ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।



सौजन्य:- सेवक एकता परिवार ( फेसबुक पेज )

परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर नागपूर


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