Saturday, May 16, 2020

प्रकरण क्रमांक:- (१३) "मानव धर्म"

                   "मानवधर्म परिचय"

"मानवधर्म परिचय पुस्तक"( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती

परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर, नागपूर

                    

              "मानवधर्म परिचय पुस्तक"

                प्रकरण क्रमांक (१३)

                        "मानव धर्म"


प्रकरण क्रमांक:- (१३) "मानव धर्म"

   

     महानत्यागी बाबा जुमदेवजीने मानद धर्म की स्थापना सन १९४९ में फरवरी माह के तीसरे सप्ताह में महाशिवरात्री पर्व पर की, "मानव धर्म" का प्रमुख उटेश मानव ने मानव जैसा व्यवहार रखे यहां है। इस धर्म की शिक्षा मानकर मानव को भगवत प्राप्ति के लिये, निष्काम कर्मयोग, साधने के लिये उसका जीवन में चलने के लिये बाबांने चार तत्व, तीन शब्द और पांच नियम दिये है वह निम्नानुसार है।


चार तत्व    ৭) परमात्मा एक 

                 २) मरे या जिये भगवत् नामपर          

                 ३) दुःखदारी दूर करते हुये उध्दार                                   ४) इच्छा अनुसार भोजन 

तीन शब्द    १) सत्य बोलना                                

                  २) मर्यादा का पालन करना                                          ३) प्रेम के साथ व्यवहार करना 

पाच नियम  १) ध्येय से एक भगवंत मानना।                                    २) सत्य, मर्यादा व प्रेम सेवकों और                                     परिवार  में स्थापित करना।                                      ३) अनेक बुरे व्यसन बंद करना।                                        (शराब, टॉनिक, सट्टा, जुव्वा,लॉटरी,                               मुर्गे की कत्ती पटकी  होड, चोरी                                     करना, झूठ बोलना  क्रोध करना                                   बंद करना करना,महिलाओंने                                       अपने  बच्चों एवं पतिदेव को बुरे                                   शब्दो में ना  बोले।इसके अलावा                                   मानवी जीवन को निचा करनेवाले                                 कोई भी बूरे व्यसन बंद  करना।) 

                  ४) परिवार और सेवको में एकता                                       कायम  करना।                                                                                                        

                  ५) मानव मंदिर सजाने के लिये दान                                    देना।                                                                          (अपना परिवार मर्यादित रखना)     

   

     मानवने भगवंत के चरणों में मरकर उसे प्राप्त करना चाहिए, तथा उसने समस्त कार्य भगवंत को सामने रखकर किया तो वह हमेशा सुखी एवं समाधानी रह सकता है।

   

       बाबाने इस मार्ग में एक ही परमेश्वर माना है। बाबा हनुमानजी यह महानत्यागी बाबा जुमदेवजी के गुरु है, उन्होने ही बाबांको एक परमेश्वर का परिचय कराया, लेकिन बाबा हनुमानजी यह इस मार्ग के परमेश्वर नही है। परमेश्वर यह व्यक्ती न होकर चोबीस घंटे जागृत रहने वाली दैवी शक्ती है, वह निराकार एवं चैतन्यमय है। प्रत्येक मानव ही चैतन्य है। इस दैची शक्ती को आकार में प्रदर्शित नही कर सकते, तो बाबाने दिये हुये । तत्व, विश्वास और त्याग इससे वह प्रदर्शित कर सकते है। याने उसके गुण दिखते है।

   

    वंशपरंपरा तथा रूढियों के अनुसार इस मार्ग की दिक्षा लेने से पहले समस्त देवी देवताओं को विसर्जित करनी होती है। तभी परमेश्वर अपने साथ रहता है। मुर्तीपुजा बंद करनी होती है। श्री संत तुलसीदासने कहा है की, "पत्थर पूजे भगवान मिले तो मैं पूजूं पहार"  इस कहावत के अनुसार बाबा हमेशा बताते है की भगवंत निर्जिव वस्तुओं में निवास नही करता वह सजिव वस्तुओं में निवास करता है। इसलिए उसकी आत्मा चैतन्य होती है। परपेश्वरने बाबा को उनकी आत्मा में अपना परिचय करा दिया है। इसलिए बाबा प्रत्येक मानव की आत्मा में परमेश्वर देखते हैं, जो चोबीस घंटे उसका जीवन चैतन्यमय रखता है। इसलिए बाबा स्वयं की आत्मा और दुसरे की आत्मा समान है ऐसा समझकर किसी को भी अपने पैर नही पड़ने देते क्योंकि एक आत्मा के सामने दुसरी आत्मा झुकेगी। इससे आत्मा का अपमान होगा तथा अंततः परमेश्वर का अपमान होगा ऐसा समझते हैं। क्योंकी आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है।

  

      यही शिक्षा उन्होने मानव को (सेवक को) दी है। इस मार्ग के सेवक किसी भी मंदिर में प्रणाम नही कर सकते तथा तांत्रिक-मांत्रिक का इलाज (उपचार) भी नहीं कर सकते। इसलिए तांत्रिक-मांत्रिक का इलाज इस मार्ग के सेवकों पर नही चलता। अनेक बुरे व्यसन बंद करने पड़ते है। शराब पीने वाले को, घर में प्रवेश वर्जित है। शराब पीनेवाला घर में आया तो उस घर में दुःख निर्माण होता है। मानवने सभी के साथ सत्य, मर्यादा और प्रेम का व्यवहार करना चाहिये। उसने अपने अंदर सें मोह, माया और अहंकार नष्ट करना चाहिये। उसने निष्काम भावना से कार्य करना चाहिये। अपने स्वार्थ के लिये दुसरे को हानि ना पहुँचाए।"अपनी अपनी करनी उतरो पार, बाप-बेटे का कौन विचार," इस कहावत के अनुसार हर एक ने अपना कर्तव्य करके उसका परिणाम स्वयं ही भुकते। बाप-बेटे के लिये और बेटा बाप के लिये किये गये कार्य का परिणाम नही भुगतता, मतलब हर एक ने स्वयं के विषय में ही विचार करना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ती जैसा कर्म करता है वैसा फल पाता है। वक्त आने पर कोई किसी का साथ नही देता। इसलिए प्रत्येक मानवने स्वावलंबी बनना आवश्यक है। उसने निष्काम सेवा करनी चाहिए।

  

    "असेल माझा हरी, तर देईल पलंगावरी," यह कहावत इस मार्ग में असत्य हुई है। यहाँ केवल भगवान-भगवान करने से नही चलता। भगवान मानव को सहाय्यता नहीं करता। अपने कर्तव्य के अनुसार हमें फल प्राप्त होता है इसलिये कर्तव्य को ही श्रेष्ठ माना गया है। हम स्वयं केवल कर्तव्य करें लेकीन उसके फल की आशा न करें। बाबांने दिये हुए तत्व, शब्द और नियम के अनुसार कर्तव्य किये तो उसे परमेश्वर साथ देता है। उसका अच्छा फल उसे प्राप्त होता है। इसलिए भगवान भगवान कहकर केवल भजन न करें उससे दैनिक आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं कर सकते और उसका जिवन मान भी उँचा नही हो सकता।

   

      इस मार्ग की दीक्षा लेते समय दीक्षा लेनेवाला स्वयं ही परमेश्वर की आराधना करता है। और उसके गुण देखता है। बाबां केवल मार्गदर्शन करते है। दीक्षा लेनेवाले को स्वयं ही आराधना कर स्वयं परमेश्वर का चमत्कार देखना होता है। यह मार्ग स्विकारने । पर स्वयं को ही हवन करना होता है। अन्य किसी को भी हवन करना मना है। इस मार्ग में परमेश्वर ने सेवकों की भावनाये समाप्त की है। सेवक ने यदि किसी दुखी-पिडीत व्यक्ती को तीर्थ (मांत्रित जल) बनाकर दिया। तो उसके दुख पलभर में दूर होते है। मानव ने त्यागी होना चाहिये। उससे वह सेवक किसी भी देव-देवताओं से कम नहीं होता। वैसे ही मार्ग के नियमों को समर्पित प्रत्येक नारी किसी भी देवी से श्रेष्ठ है।

  

         अपने जैसे बनाये तत्काल, उसे समयकाल न लगे," इस कथनानुसार बाबांने प्रत्येक सेवक को स्वावलंबी, निस्वार्थ एवं त्यागी बनाया और निष्काम सेवा करने का पाठ पढाया है। त्यागसे परमेश्वर शीघ्र प्राप्त होता है। इसलिए इस मार्ग का हर सेवक अन्य लोगों के दुःख जल्द ही दूर करता है।

    

     "मानव धर्म"" मार्ग में केवल दो जातियाँ है, नर और नारी, इसके अलावा इस मार्ग में अन्य कोई जात-पात नही। इससे पूर्व जो जातीयाँ निर्माण हुई है उन्हें यहाँ स्थान नही। यहाँ केवल एक ही धर्म है। और वह याने "मानव धर्म" क्योंकी परमेश्वर को प्रिय रहनेवाले सत्य, मर्यादा और प्रेम पुर्वक व्यवहार इसके लिए मानव को कार्य करना है। मर्यादित परिवार, व्यसनमुक्ती, शुध्दमन, स्वस्थ शरीर, शुध्द व्यवहार, स्वच्छ कपडे, सादा रहना, उदात्त विचार, एवं त्यागमय जीवन इत्यादी बाते इस मार्ग की शिक्षा है।

    

      तत्व, निश्चय एवं त्याग से परमेश्वर मानव के पास होता है। तत्व से निष्काम कर्मयोग साध्य किया जाता है। निश्चय से विश्वास बढता है, एवं त्याग से धैर्य बढता है। इस मार्ग में भावनाओं को बिल्कुल जगह नही है।

       

   इस मार्ग का निशाण यह देश का "निशाण" (चिन्ह) है। प्रत्येक मानव का कर्तव्य है की जिसने जिस भूमीपर जन्म लिया, उसने उसे कर्म भूमी माननी चाहिए और उसके प्रति उसे अभिमान होना चाहिये। इसलिए अपने देश की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य है।

   

     "स्वयं ही अपना छुटकारा करे, इस कथनानुसार इस मार्ग का प्रत्येक सेवक, उसे आनेवाले दुःखों से स्वयं को बचाता है। मानव यह कर्म करनेवाला प्राणी है, वह कार्य करते समय गलती करता है। और उस गलती के कारण वह दुःखी होता है। इन दु खो से मुक्ति पाने हेतु उसे पुनः भगवान के समक्ष अपनी गलती मानकर फिर से गलती नही करेगा, ऐसा वचन देना होता है। क्योंकी मानव यह क्षमा योग्य है, उपरोक्त, कथनानुसार भगवान उसे क्षमा कर, दुःखो से मुक्त करता है।

    

     इस मार्ग में असाध्य रोग जैसे टी.बी., कॅन्सर, कृष्ठरोग आदि साध्य होते हैं। जो संसर्गजन्य रोग है वे भी इस मार्ग में नष्ट हुये है। वैसे ही अनुवांशिक रोग भी नष्ट होकर फिर से उस परिवार में नही होते। इसके कई उदाहरण इस मार्ग में सेवकों को प्राप्त अनुभव से आए है।


बाबा हनुमानजी पुर्व मुखीच का?

    

   इस मार्ग के सेवक हवन करते समय बाबा हनुमानजी की प्रतिमा पुर्व मुखी रखते है तथा हवन करनेवाले का मुख पश्चिम की और होता है। सुर्य पुर्व से उदयमान होने से पुर्व दिशा हमेशा प्रकाशमय होती है। परमेश्वर प्रकाशमय है। पश्चिम की ओर सुर्य अस्त होने के कारण अंधकार होता है, इसी प्रकार मानव आपसे जीवन में किसी कारणों से डुबता है और उसका जीवन अंधकारमय बनता है दुःखी मानव का जीवन नही डुबे उसके जीवन में अंधकारमय वातावरण के बदले प्रकाशमय वातावरण निर्माण होना चाहिये। इस दृष्टिकोन से ,उसका लक्ष्य हमेशा सामने रखी प्रतिमा की ओर याने भगवंत की ओर रहना चाहिये तथा भगवान की ओर देखने से उसके मन में एकाग्रता तैयार होकर एक लक्ष्य, एक चित्त, एक भगवान मानने से उसका जीवन प्रकाशमय बन सकता है।

      

   मानवने मानव जैसा व्यवहार करना चाहिये यही वास्तवमे इस धर्म का उद्देश है। मानव का जीवन त्यागमय होकर दया, क्षमा, शांती आदि गुण उसमें निर्माण कर सत्य, मर्यादा, प्रेम का आचरण उसने सभी के साथ करना चाहिये। यही इस धर्म की शिक्षा है और यह सच्चा मानवधर्म है। इस मार्ग का सेवक यह प्रकरण सात में बताये अनुसार महानत्यागी बाबा को जिन-जिन देवी-देवताओं ने दर्शन दिये। उनसे कम नही तथापि वह श्रेष्ठ ही है यह सिध्द किया है। वे समस्त देवी-देवताएँ भी मानव थे परमेश्वर नही थे ऐसा बाबांने बताया है।

नमस्कार..!

लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में  "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।


टिप:- ये पोस्ट कोई भी कॉपी न करे, बल्कि ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।

🔸 ऊपर लिखित आवरण "मानवधर्म परिचय" पुस्तक ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।


सौजन्य:- सेवक एकता परिवार ( फेसबुक पेज )

परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर नागपूर

🌐 हमें सोशल मीडिया पर अवश्य मिले।

सेवक एकता परिवार ( Facebook Page )

https://www.facebook.com/SevakEktaParivar/

सेवक एकता परिवार ( Blogspot )

https://sevakektaparivar.blogspot.com/?m=1

सेवक एकता परिवार (YouTube Channel )

https://www.youtube.com/channel/UCsZFWZwLJ3AzH1FWhYNmu8w

सोशल मीडिया लिंक:-https://www.facebook.com/SevakEktaParivar/

No comments:

Post a Comment

परमात्मा एक मानवधर्मात सेवकांनी दसरा सण कशाप्रकारे साजरा करावा.

  "परमात्मा एक" मानवधर्मात सेवकांनी दसरा सण कशाप्रकारे साजरा करावा.         !! भगवान बाबा हनुमानजी को प्रणाम !!       !! महानत्याग...