Monday, May 11, 2020

प्रकरण क्रमांक:- (८) "विदेहावस्था"

                    "मानवधर्म परिचय"


"मानवधर्म परिचय" पुस्तक ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती

परमपुज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर, नागपूर

                       "मानवधर्म परिचय" पुस्तक

                  प्रकरण क्रमांक (८)

                     " विदेहावस्था"

                  

प्रकरण क्रमांक:- (८) "विदेहावस्था"


          महानत्यागी बाबा जुमदेवजीने एक भगवंत की प्राप्ति श्रावण वद्य पष्ठी दि. २५/८/१९४८ दिन बुधवार को की। तब से वे निराकार अवस्था में ही थे। उन्हें विदेहास्थिती प्राप्त हुई थी। वे पूर्णतः परमेश्वर में विलीन हुये थे। बाबा की यह स्थिती देखकर उनके परिवार के अन्य लोग चिंताग्रस्त हुये। उन्होने आपस में विचार किया की इस स्थिती बाबत परमेश्वर को बिनती करके बाबाकों मुक्त कराये तदनुसार वे सभी लोग एक भगवत् प्राप्ति के दुसरे दिन बाबा के यहां आये तब बाबा निराकार अवस्था में ही थे और परमेश्वर में विलीन हये थे।

  

     परिवार के लोगों ने बाबा से बिनती की, की "हे भगवान सेवक की यह स्थिती कब तक रहेगी? आप सेवक को इस स्थिती से मुक्त किजीए" तब परमेश्वर रुपी बाबाने उत्तर दिया की,"अगर आपका भाई आपको इतना प्यारा था, आपको उससे इतनी हमदर्दी थी तो आपने उसे भगवान की सेवा करने क्यों लगाई? उस समय आपने उन्हे रोकना था। अब सेवक भगवान का हो गया, न की किसी का रहा और भगवान सेवक का हो गया है। मेरा सर सेवक का धड और सेवक का सर मेरा धड ऐसा विलीन हो गया है। इस तरह दोनों की आत्मा एक हो गई है।"
 

      भगवंतने बाबा के मुखकमल से पुनः घर के लोगों को संबोधित शब्द निकाले की, "सेवक भगवान बन गया। इसलिए सेवक एक ही समय थोडासा साधा भोजन करेंगे। जिसमें दाल, चावल, सब्जी और घी होगा। और कोई भी महिला धर की हो या बाहर की, उसकी छाँव सेवक पर न पड़े। नही तो सेवक कही का नही रहेगा। जिंदा नहीं रहेगा।" इस प्रकार भगवंतने सेवक को (बाबा कों) दैवी शक्ती की जागृती दी, जिसे आज समाज मेंबहुत से लोग मानते है।
  

        इसी दिन से बाबा की जेष्ठ भाभी श्रीमती सीताबाई इनके शरीर में शनिवार को जो पार्वती आती थी। वह उनके शरीर में आने की क्रिया बंद हुई। बाबा के परिवार में परमेश्वर की (हनुमानजी) प्राप्ती करने के बाद भी जो दुःख आते थे। वह भी इसी दिन से नष्ट हुये। बाबा के परिवार में जो अनेक दैवत माने जाते थे, वह मानना बंद हुआ। इसके अलावा उनके घर की समस्त भुतबाधाएँ भी नष्ट हुई।
    

        परमेश्वर प्राप्ती से पहले बाबा के परिवार में घर के लोग परंपरानुसार अंधश्रध्दा के कारण कुछ त्योहार नही मानते थे उनमें से पोला यह एक त्यौहार था। बाबांने एक भगवंत की प्राप्ती करने के बाद जल्दी ही आठ दिनमें पोला त्यौहार आया। उसके दो दिन पहले बाबा निराकार में आये और घर के लोगों को उस निराकार बैठक में आदेश दिया की इस वर्ष पोला यह त्यौहार घर के सब लोगों ने मनाना चाहिए , तद्नुसार पोला मनाने का सुनिश्चित किया ।
    

      श्रावण अमावस्या आयी , पोले का दिन निकला उस दिन सबेरे ही बाबा के मकान के दरवाजे में एक बड़ा अजगर वलय ( कुंडली ) बनाकर दरवाजे की आड में ,  छुप कर बैठा था । वह किसी भी आने वालों कों दिखता नहीं था । वह किसी को भी काटने का प्रयास भी नही करता था । वह साप किसी को भी नहीं दिखा । उस वक्त बाबा दरवाजे में जाने पर उनका ध्यान उस ओर गया । वह सिर उपर निकालकर शांत था । कोई भी हलचल नही करता था , यह बाबाने देखा । इस समय भी बाबा विदेह स्थिती में ही थे। तत्पश्चात बाबांने स्वयं ही एक छोटी सी लकडी से उसके सिरपर मारा । उस सादे मार से ही साप मर गया । इतना बड़ा अजगर और कुछ भी हलचल न करते हुए वह सादे मार से मरता है यह देखकर बाबा आश्चर्यचकीत हुए । उन्होने बहुत विचार किया तब वे बोले , इतने लंबे समय से इस घर में जो दुःख थे । उसका असली जिम्मेदार यह साप था , कोई तो भी मरने के पश्चात् उसे मोक्ष प्राप्त नही हुआ , इस कारण वह साप के रुप में भूत था । एक परमेश्वर की प्राप्ती के बाद इस घर में चोबीस घंटे जागृत रहनेवाली शक्ती चैतन्यरुप में विचरण कर रही है । इसलिए वह यहाँ रह नही पाया और उस शक्ती के हाथों उसे मोक्ष चाहिए था । तद्नुसार उसे परमेश्वर रुपी बाबाकें हाथो मोक्ष प्राप्त हुआ तब से आजतक उनके घर में किसी को भी भूतबाधा नहीं हुई। बाबा आज जिस घर में वास्तव्य कर रहे है उस घर में चारों और से प्रसन्नता है। वहाँ उल्हासमय वातावरण है क्योंकी वहां चोबीस घंटे जागृत शक्ती चैतन्य रुप में विचरित है । तब से उनके घर में सुख शांति प्राप्त है।
   

        कोई भी त्योहार न माने, किसी भी देव को न माने, एकही परमेश्वर की आराधना करे, यह यदि निश्चित हुआ था। तो भी विधिलिखीत कुछ होना है। इस कथ्य अनुसार परमेश्वर को कुछ तो भी घटित करना था इसलिए उन्होने पोला त्यौहार के निमित्य कर उस घर से संकट का मूल हमेशा के लिए नष्ट किया।
    

      बाबा विदेह अवस्थामें होने पर रात दिन विश्व में बृहद विशाल एक ही नेत्र(आँख) दिखता था। इसलिए वे बहुत घबराये थे। उस एक ही आँख को देखने की उन्हें हिंमत नही होती थी। इसलिए उन्होने उनके जेष्ठ बंधु श्री. बाळकृष्ण इन्हें बताया की, "भैया, मैं तेरे घर आकर तेरे पास सोऊँगा। मुझे इस घर पर विशाल एक ही आँख दिखाई देती है। वह देखकर मुझे डर लगता है। इसलिये वह मैं देख नही सकता।" इतना विशाल एकही नेत्र बाबाको एक-सव्वा महिने तक लगातार दिख रहा था।
    

          बाबाने अपने जेष्ठ बंधु को बताये अनुसार वे उनके यहाँ जाकर सोने लगे। श्री. बाळकृष्णजी का मकान बाबा के सामने ही है। बाबा वहाँ भी नींद से जाग जाते थे। और उन्हे बाबा हनुमानजी की बहुत बड़ी आकृती दिखती थी। तब बाबा भाई को नींद से उठाते और बताते की, "तुम बाबा हुनुमानजी को बताओं की तुम मेरे भाई के पीछे मत पड़ो, आप मंदिर में जाकर रहो।" तद्नुसार बाळकृष्णजी उतनी रात को ही हाथपॉव धोकर भगवंत के नाम से कपूर लगाते और बिनती करते थे की, "हे भगवान में आपसे बिनती करता हूँ की आप मेरे भाई के पीछे मत पडो । उसक परिवार है , उसका प्रपंच ( संसार ) है । इसलिए उसे आजाद करे" ।  ऐसी बिनती कर फिर सो जाते ।
     

         बाबांको एक ही आँख दिखना , बाबा हनुमानजी की प्रतिमा दिखना , इन लक्षणों से यह सिध्द होता है की , बाबा परमेश्वर में विलीन हुये है । क्योंकी भगवत प्राप्ती के लिये प्रारंभ में बाबांने जो प्रतिज्ञा की थी की , एक तो मरूँगा या भगवंत को प्राप्त करूंगा , लेकीन पिछे नही हटूंगा । तद्नुसार उनकी इच्छा पूर्ण हुई थी । परमेश्वर को प्राप्त कर वे उसमें विलीन हुये थे ।
    

          बाबा की यह विदेह अवस्था करीब - करीब तीन महिने थी । इस विदेह अवस्था में  एक दिन बाबांने अपने परिवारजनों को निराकार बैठक में मार्गदर्शन किया की , " घरवालो सुनो , आप सब लोग तीन माहतक भगवान से बिनती करो की हमारे भाई की यह अवस्था समाप्त कर उसे गृहस्थी में रखे" । उसके अनुसार घर के सभी लोगों ने रोज सबेरे सूर्योदय के पुर्व तीन माह तक एक भगवंत के नाम से अगरबत्ती व कपूर लगाकर उपरोक्तानुसार बिनती की । तीन माह पूर्ण होने पर दूसरे दिन हवन कर उसकी समाप्ती की और तत्पश्चात उसी दिन बाबा होशोहवास में आये । उनकी विदेह अवस्था समाप्त हुई । उन्हे सर्वसाधारण गृहस्थ जैसा सभी समझने लगे और इसी के साथ उनका अज्ञातवास भी समाप्त हुआ । वे परमेश्वर की ( हनुमानजी ) प्राप्ती करने के बाद यानि जनवरी १९४६ से करीब - करीब तीन वर्ष अज्ञातवास में थे । क्योंकी यह १९४८ साल का नवम्बर माह का दिन था । बाबा दुसरे दिन से अपने परिवार के निर्वाह के उद्योग करने लगे । इस प्रकार बाबांके परिवार में शांती मिली । बाबांने अपनी उम्र के अठ्ठाविसवे वर्ष एक भगवंत की प्राप्ती की । बाबा के बारें में लोगों को जैसे - जैसे , धीरे - धीरे मालूम होने लगा वैसे - वैसे लोग इस मार्ग में आने लगे सेवक बनने लगे । इस प्रकार सद्गुरु समर्थ बाबा जुमदेवजी इस नाम से प्रसिध्द हुये । आगे उन्हें ५ अगस्त १९८४ को इस मार्ग के सेवकोने महानत्यागी यह उपाधी प्रदान की और उन्हे सदगुरु समर्थ के बदले महानत्यागी बाबा जुमदेवजी कहने लगे ।

 नमस्कार..!
 

लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में  "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।


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ऊपर लिखित आवरण "मानवधर्म परिचय" पुस्तक ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।

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