"मानवधर्म परिचय"
"मानवधर्म परिचय पुस्तक" (हिंदी) सुधारित द्वितीय आवृत्ती
परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर, नागपूर
"मानवधर्म परिचय पुस्तक"
प्रकरण क्रमांक (१०)
"चार तत्व"
प्रकरण क्रमांक:- (१०) "चार तत्व"
महानत्यागी बाबा जुमदेवजी ने एक परमेश्वर की प्राप्ती के लिये विदेय अवस्था में रहते हुये अंत में एक परमेश्वरने बाबा को दर्शन दिये और उन्हें बेइमान कहा। तत्पश्चात बाबांने परमेश्वर को इमानदारी और निष्काम भावना से मानव को परेमश्वर के प्रति जगाने का कार्य करुँगा ऐसा वचन देकर "परमात्मा एक" "मरे या जिये भगवत नामपर" ऐसा वचन दिया। भगवंत बाबा पर प्रसन्न हुये और उन्होंने बाबांको अगले दो वचन दिये।"दुःखदारी दूर करते हुये उध्दार" और "इच्छा अनुसार भोजन" यही वचन इस मार्ग के सिध्दांत बनाकर बाबांने भगवत प्राप्ती के लिये निष्काम कर्मयोग साधने के लिये और मानव को जीवन में सफल होने के लिये यह चार तत्व दिये है।
৭. परमात्मा एक
२. मरे या जिये भगवत् नामपर
३. दुःखदारी दूर करते हुये उध्दार
४. इच्छा अनुसार भोजन
१. परमात्मा एक
महानत्यागी बाबा जुमदेवजींने ऐसे एक परमेश्वर का, जो मानव के सभी तरह के दुख दूर कर सके, उसकी खोज करने का कार्य प्रारंभ किया। तब उस परमेश्वरने आकार में आकर दर्शन दिये।"तेरा है तेरे पास तो भी तू भूल गया" इस कथनानुसार उन्होने बाबा से कहा, "सेवक, तु मुझे कहाँ देख रहा है। में २४ घंटे तेरे पास हूँ। जिस पल छुट जाऊँगा, तेरा शरीर मृत हो जायेगा।" तब बाबाने विचार किया की ऐसी कौनसी वस्तु है जिसके कारण में जिंदा हूँ। तब उन्हें"आत्मा" यह वस्तु याद आयी। मनुष्य की आत्मा निकल जाने पर उसका शरीर मृत होता है। शरीर यह नश्वर है। आत्मा वह अमर होकर वह परमेश्वर का अंश है संपूर्ण प्राणियों की आत्मा मिलकर "एक परमात्मा" है। यानि परमेश्वर का अंश प्रत्येक जीवात्मा में है। यह बाबांने पहचाना। इसलिये बाबांने परमेश्वर को "परमात्मा एक" माना, वह आत्मज्योत है। जो आत्मा बाबांके पास है वही, आत्मा अन्यों के पास भी है। इसका अर्थ सभी मानव समान है। ऐसा बाबा मानते हैं। इसिलिए वे किसी को भी अपने पैर पर माथा टेकने नही देते। क्योंकी एक आत्मा के सामने दुसरा आत्मा झुकना, यह आत्मा का अनादर होकर पर्यायी परमेश्वरका अनादर है। इसलिये परमेश्वर यह व्यक्ती न होकर वह निरंतर चैतन्य शक्ती है। इसलिये परमेश्वर यह व्यक्ती न होकर शक्ती है, वह निराकार है। यह आकार में आती रही, फिर भी वह अदृष्य है। वह दिखाई नही देती। सिर्फ उसके गुण दिखते है।
२. मरे या जिये भगवत् नामपर
मानव यह पृथ्वीतलपर पैदा हुआ। फिर भी वह परमात्मा का ही एक अंश है। परमेश्वरने उसे बुध्टी दी और अन्य गुणों के साथ साथ उसमें मोह, माया, अहंकार निर्माण किया है। वह खुद को स्वयंभू समझता है वह परमेश्वर को नहीं मानता। इसलिये यह अपनी बुध्दि का उपयोग कर मोह, माया, आहंकार में फँसता है, जिससे वह दुःखी होता है। वह दुख निवारण करने के लिये कई तरह के उपचार करता है। लेकीन जब उसके दुःखख नष्ट नही होते, तब उसे परमेश्वर की याद आती है और वह उसकी आराधना करता है। इसलिये महानत्यागी बाबा जुमदेवजी हमेशा बताते है की, मनुष्य यह स्वयंभू नही है। परमेश्वर यह एक शक्ती है। मानव यह कर्मकर्ता है। वह फल की अपेक्षा न करे। फल देने बाला भगवान है। इसलिये मानवने जीवन रहते तक परमेश्वर के नाम का स्मरण करके उसके वसंदीदा कार्य करें। तब उसे मृत्यू आनेपर उसकी आत्मा परमेश्वर में विलीन होती है। अन्यथा वह चौरास्सी लाख योनी घूमते रहते है, वह आत्मा अशांत रहती है और ताख चौरारती भोग आते है। परमेश्वर को समक्ष रखकर मानव ने कार्य किया तो उसके शरीर से मोह, माया और अहंकार नष्ट होते है इसी को कहा गया है की, मरे या जिये भगवत नामपर।
३. दुःखदारी दूर करते हुये उथ्दार
महानत्यागी बाबा जुमदेवजीने बताया है की, मानवने यदि परमेश्वर के पसंदीदा कार्य किये और मोह, माया तथा अहंकार का परित्याग किया, सब से सत्य व्यवहार किया, वह मर्यादा पूर्वक रहा और प्रेम का आचरण किया, तो वह मानव परमेश्वर को सदैव प्यारा रहता है। प्राकृतिक वातावरण से उसे दुःख होना तथा उसे जीवन जीते हुये
कई प्रकार के कष्ट आपदाएँ आती है। ऐसे समय वह कई उपचार करता है। उस समय परमेश्वर को समक्ष रखकर उपचार किया तो उसके दु ख जल्द ही नष्ट होते हैं और उसकी आपदाएँ सहजरूप से समाप्त होती है। इस कार्य में परमेश्वर उसका साथ देता है अंत समय में मानव की परमेश्वर मुक्ती देता है और उसे मोक्ष प्राप्त होता है। यानि मानव को परमेश्वर के चरणों में स्थान मिलता है इस प्रकार परमेश्वर मानव के दुःख दूर कर अंत में उसके जीवन का उध्दार करता है।
४. इच्छा अनुसार भोजन
मानव जन्म लेनेपर उसे संपूर्ण जीवन जीने के लिये बहुत सी बातों की आवश्यकता होती है। वह अपना जीवन सुखी और समाधानी कैसे बनेगा इस ओर उसका अधिक ध्यान होता है तब उसने भगवंत के पास उसके चाहत की दस्तुओं की इच्छा की । और परमेश्वर को बिनती की तब उसे वह वस्तु सुगमता से प्राप्त होती है यही "इच्छा अनुसार भोजन" है, इच्छा अनुसार भोजन का अर्थ मानव को कभी भी, जब उसे जो। कुछ खाने की इच्छा हो और वह उसे मिलना चाहिये, ऐसे नहीं है। जैसे असेल माझा हरी तर देईल पलंगावरी यह गलत है। उसने जिस प्रकार के कार्य किये होगे। उसी प्रकार उसने इच्छा की तभी उसे वह वस्तु प्राप्त होती है, अन्यथा नही, यानि इच्छा अनुसार भोजन के लिये उसे तदनुसार कर्म करना महत्वपूर्ण है।
नमस्कार...!
लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।
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