Wednesday, April 29, 2020

प्रकरण क्रमांक:- (३) "परमेश्वरी कृपाप्राप्ती"

       "मानवधर्म परिचय पुस्तक"

"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।

परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर, नागपूर


                          प्रकरण क्रमांक (३)

           "परमेश्वरी कृपाप्राप्ती"


प्रकरण क्रमांक:- (३) "परमेश्वरी कृपाप्राप्ती"


                    "मानवधर्म परिचय पुस्तक"
प्रकरण क्रमांक:- (३) "परमेश्वरी कृपा प्राप्ती"

         बाबाको हनुमानजी के मंत्र की प्राप्ति के बाद ऐसा लगने लगा की, पांच भाईयों में से किसी एक ने इस विधी को पुरा करना चाहिए और परमेश्वरी कृपा प्राप्त करनी चाहिए। यदि कोई भी तैयार नही हुआ तो मैने स्वयं यह विधी करना चाहिए, इस उद्देश्य से दो तीन दिन बाद पांचो भाईयों की बैठक उन्होने की बैठक उन्होंने बुलायी। सभी लोग इकठठे होने पर बाबाने वह मंत्र सब के समक्ष रखा और चारों भाईयों को उन्होने कहा की इस मंत्र से हमें परमेश्वर को जगाना है। और उसकी कृपा प्राप्त करना है। इसके लिए विधी करना आवश्यक है। इसलिए यह मंत्र मैने आप सबके समक्ष रखा है। यह मंत्र जिसने मुझे दिया उसने विधी की नही तथापि उसने यह भी बताया की यह विधी करते समय इसका ठीक से पालन न होने पर कुछ लोग मर गये तो कुछ पागल हुए। लेकीन इस मंत्र का विधी ठीक से साध्य होने पर घर के सभी कष्ट नष्ट होकर पूरे परिवार को सदैव सुख और समाधान मिलेगा। इतनाही नही, इस मंत्र से दूसरों के दूख भी दूर किये जायेंगे। हम पाँच भाई है, कल किसीने मुझ पर यह आरोप न लगाये की मैने मंत्र मिलने पर उसे गुप्त रखा और स्वयं ही उसका प्रयोग किया। जिसकी इच्छा हो, वह यह विधी करें। मेरी पुरी अनुमति है।

           तत्पश्चात वह मंत्र एक के बाद एक सभी भाईयों ने पढा और सबके मुख से एकही विचार निकला की यह विधी इकतालिस दिन करना होगा। वह हनुमानजी का होने से बहुत मुश्किल है और विधी पूर्ण करना ही होगा। उसे बीच में छोड नही सकते। यदि वह पूरी नही हुई तो हम तो मरेंगे या फिर पागल होंगे ऐसा हमें डर लगता है। इसलिए यह विधी हम नही कर सकेंगे। यह सुनकर बाबा पलभर दंग रह गये। कुछ देर बाद उन्होने चारों भाईयों को कहा की हम पाँच भाई है, आप लोगों को डर लगता है तो आप न करें लेकीन एक भाई मर गया और हम केवल चारही भाई है ऐसा समझो और आप लोग मेरे परिवार का निर्वाह करने की जबाबदारी लो ऐसी उन्होने बिनती की उस समय बाबाके परिवार में सिर्फ आई (बाबा की पत्नी) और पुत्र मनो यह दोनों ही थे। उस समय बाबा ने यह संकल्प लिया की, मै यह विधी करके भगवत की प्राप्ति करुंगा अथवा मरुंगा लेकीन पिछे नही हटुँगा। इससे बाबा के स्वभाव का दृष्टनिश्चयता यह गुण दिखाई देता है।

          इस प्रकार निर्णय लेकर घर के लोगों को घर चुने से साफ करने कहा और विधी प्रारंभ करने का दिन और तारिख निश्चत की वह दिन सोमवार था और २६ नवम्बर १९४५ यह तारीख थी।

           निश्चित किये दिन अनुसार बाबा ने भोर में ही स्नान किया। उनके मकान के पास हनुमानजी का मंदिर था। उस मंदिर में पानी, अगरबत्ती और कपूर लेकर गये। वहाँ हनुमानजी का पानी से स्नान कराकर अगरबत्ती कपूर जलाकर इक्कीस प्रदक्षिणा की यह कार्यक्रम सुर्योदय से पूर्व किया। इस प्रकार इकतालिस दिन के विधी (साधना) का प्रारंभ किया।

                   "पहिली परिक्षा और प्रतिसाद"

           विधी के इक्कीसवे दिन दोपहर में बाबा घर में थे, उस समय उनके जेष्ठ बंधु श्री. नारायणराव उनके यहाँ आये और वह बताने लगे की " मेरी लड़की की तबियत बहुत खराब है। कुछ समझ में नहीं आता फिर भी तू मेरे साथ चल उसे देख और उसे हो रहे कष्टों से कैसे भी मुक्त कर।" तब बाबाने उन्हे बताया, "भैया मुझे कुछ भी नही
समझता। मैं केवल भोर में बाबा हनुमानजी को कपूर लगाकर मंत्र पढता हूँ" इतना कहकर बाबा उसके साथ उसके घर गये वे बाबा के मकान के सामने ही रहते थे ।

          बाबाने उस लडकी को देखा तब उसे देखकर उन्हे बहुत दुःख हुआ। उस लडकी के संपुर्ण शरीर में बड़े बडे फोडे हुए थे। और वे फुटकर उससे संपुर्ण शरीर में खुन बह रहा था। संपूर्ण शरीर में लाल चिटियाँ लगी थी। उस लडकी के शरीर का छोटा सा हिस्सा भी खाली नही दिख रहा था। वह चिटियों से पूरा घेरा हुआ था। यह देखकर बाबा बहुत घबराये। वे चिंताग्रस्त हुए उनके मन में विचार आया की बाबा हनुमानजी को प्रसन्न करने हेतु विधी करना बहुतही मुश्किल है, ऐसी जो मान्यता है वह सच होगी। अब परमेश्वर हमें यह विधी पुर्ण करने नही देगा। विधी तो पूरी करना ही है, अन्यथा क्या कष्ट आयेगा, कहना कठीण है। एक तरफ खाई है तो दुसरी और कुआँ इस कहावत के अनुसार बाबा के समक्ष हालात निर्माण हुए थे, फिर भी बाबा का निर्धार मजबुत था वे नही डगमगाएँ। बाबा वहाँ कुछ भी न बोले और ना ही कोई उपचार किये बगैर घर वापस आये।

         दुसरे दिन यानि विधी के बाईसवे दिन, नियत समयानुसार बाबा विधी करने मंदिर गये। वहाँ उन्होने बाबा हनुमानजी की मुर्ती का हमेशा की तरह स्नान कराया, कपूर एवं अगरबत्ती लगायी और बिनती की कि हे बाबा हनुमानजी आपने मुझ पर बहुत बडी विपत्ती लाकर रखी है, मै आपसे बिनती करता हूँ की मुझे पहले अपने चरणों में विलिन करें अन्यथा उस लडकी को मुक्त करें। तत्पश्चात इक्कीस प्रदक्षिणा लगाकर घर आये बाबा के मन में उस दिन कोई भी विचार नही आया था उनका वह दिन ऐसे ही बिता।

        तेईसवे दिन बाबा सुबह-सवेरे (भोर) विधी निपटाकर घर आकर बाहर के कमरे में दरवाजे के पास ही बैठे थे। जिस लडकी को कष्ट था, वही लडकी उनके घर के आंगन में खेल रही थी। बाबा का ध्यान उस लड़की की ओर गया। उसे देखकर बाबा विस्मित हुए उस लडकी के सारे फोडे ठीक हए थे, यह देखकर बाबा को खुशी हुई। इस प्रकार परमेश्वरने बाबा की प्रथम परिक्षा ली और बाबा का परमेश्वर के प्रति रहनेवाला अत्याधिक प्रेम और श्रध्दा देखकर उनकी बिनती को परमेश्वर ने प्रतिसाद दिया। बाबा को पहिली सफलता मिली, परमेश्वर की कृपा प्राप्त करने के बाबा के प्रयत्न साकार होने की शुरुवात हुई। इस प्रकार बाबाने इकतालिस दिन का विधी पूर्ण किया तथा बयालिसवे दिन बाबानें परमेश्वर को शक्कर का भोग (नैवेद्य) लगाकर उसकी समाप्ति की। प्रसाद सबकों बांटा वह दिन रविवार ६ जनवरी १९४६ होकर बाजार का दिन था। इस समय बाबा सिर्फ २५ वर्ष के थे। इससे बाबा का एक और गुण ध्यान में आता है की परमेश्वर के विषय में उनके मन में अथाह आत्मियता और लगन थी।

          बाबांने विधी समाप्त करने के बाद उसी दिन वे जिस व्यक्ती ने उन्हें मंत्र दिया था। उसके पास गये, उसने बाबां का मेहमान के नाते आदरतिथ्य किया। कुछ देर बैठने के बाद बाबांने उनसे कहा की इकतालिस दिन का विधी काल पूर्ण हुआ। और आज बयालिसवे दिन उस विधी की समाप्ति की। विधी सरलता से पूरा हुआ ऐसा कहकर बाबाने अगला कार्य बताने हेतु उन्हें विनती की।

          अगले कार्य के बाबत बताते हुए उस व्यक्ती ने बाबा से कहा की, हररोज एक बार इस प्रकार ७,११,२१,३१,४१,५१,६१,७१,८१, ९१ और १०१ दिन उसी मंत्र से १०८ बार मंत्र कहकर उतनी ही बार हवन में घी और हवनपुडा इसकी आहुती डालनी पड़ती है। लेकीन वह संन्यासी त्रिताल (एक रात में तीन बार) हवन करता था। उसका विधी ऐसा की हवन सुर्योदय पूर्व समाप्त होने चाहिए। जगह साफ करना, स्नान करना, हवन की रचना कर १०८ बार मंत्रोच्चार करके आहुती डालना। पहला हवन समाप्त होते ही दूसरा हवन शुरु करने के पूर्व वही जगह साफ कर, स्नान कर, उसी जगह पर फिर से हवन की रचना करनी होगी। पुनः प्रसाद करना और हवन का विधी पूर्ण करनी होगी वह समाप्त होते ही तिसरा हवन उसी जगह पर वह जगह साफ कर एवं स्नान कर फिर से प्रसाद बनाके और हवन पूर्ण करना होगा। इस प्रकार तीन हवन एक ही रात में पूरा करना होता है। यह त्रिताल हवन ११,२१ से १०१ दिन करना पडता है।

          हवन के लिए आवश्यक सामान याने रानगोवरी (खेत/वन में पाये जाने वाले सुखे गोबर के टुकडे) पिंपल, बरगद, संत्रा, मोसंबी, आम, उंबर, आदि पेड़ों में से पाँच पेडो की लकडियाँ, नरियल, फल, पान, सुपारी, हार, बेल, फुल, आहुती डालने हेतु घी (परिस्थिती को देखते हुए असली या वनस्पती) दही, दुध, केले, बाबा हनुमानजी की प्रतिमा वाला फोटो, गोमुत्र, चंदन चुरा, हवनपुडा, अबीर, सेंदुर, गुलाल इत्यादी सामान लगता है और प्रसाद के रूप में हलवा (कढई) करना पडता है।

          यह सब लिखकर बाबा शाम को नागपुर वापस आये। तब घर के सभी लोग उनकी राह देख रहे थे। घर आने पर उन्होने उपरोक्त पूरी जानकारी सब को बतायी और कहा की यह खर्च की बात है। पहले ही हमारी आर्थिक परिस्थिती बहुत खराब है। इसलिए हम दिनभर बुनकरी करके शाम को मजदरी मिलने पर सामान की खरेदी कर रात को त्रिताल हवन करेंगे। उसी तरह त्रिताल हवन के कारण रातभर जागरण होगा इसलिए सभीने जागरण करना जरुरी नही क्योंकी सभीने जागरण किया तो दुसरे दिन बुनकाम न होने से, मजदूरी न मिलने से हवन का सामान न ला सकने के कारण हवन कार्य कर नहीं सकेंगे और हवन कार्य खंडीत होगा। इस पर सभी लोगोंने गंभीरतापुर्वक विचार किया और दुसरे दिन से सात दिन त्रिताल हवन करने का निश्चय किया।

           निश्चित किये अनुसार दुसरे दिन सभीने बुनकरी कर शाम को मजदुरी मिलने पर बडी मुश्किल से सामान जुटाया और सायं ७ बजे प्रथम हवन की शुरुवात की। इस मार्ग के सेवक जिस प्रकार हवन की रचना करते है। उसी प्रकार उसकी रचना की और बताये अनुसार हवन कार्य प्रारंभ किया। पहला हवन समाप्त होते ही दुसरा, तिसरा हवन करते हुए पूरे सात दिन तक त्रिताल हवन किया। पहला हवन समाप्त होने पर भोजन करने के बाद में दुसरा हवन रात को ग्यारह बजे शुरु करते तिसरा हवन रातको तीन बजे शुरु करके तडके (भोर) पांच बजे समाप्त करते। पुनः द्सरे दिन दिनभर बुनकरी कर श्याम को सामान जुटाते। इस समय बहुत कष्ट होता था बाबा स्वयं हवन करते थे। उसके अलावा स्वयं ही हवन में आहुती डालते। अन्य किसी को भी हवन में आहुती डालने की अनुमती नही थी। हवन करते वक्त बाबा किसी से भी बात नही करते थे। किसी चीज की आवश्यकता पडने पर इशारा करते। जब कुछ पुछना हो तो स्लेटपर कलम से लिखकर या कागजपर पेन से लिखकर पुछते थे। इसप्रकार बाबानें लगातार सात दिन त्रिताल हवन किया।

                        "साक्षात्कार एवं प्रचिती"

           त्रिताल हवन के पहले ही दिन जब दुसरा हवन कार्य चालु था निश्चित किये अनुसार बाबाके अनुज मारोतराव सोये थे। वह गहरी नींद में सोये हुये ही जोर-जोरसे चिल्ला रहे थे लंगोटी वाले बाबा की जय। यह शब्द जब बाबाके कानों पर पडे तब बाबाने एक कागजपर लिखकर घर के लोगों को उन्हे पुछताछ करने को कहा की ऐसा तू क्यों चिल्लाया? तब बाबा के बड़े भाई श्री. जागोबाजी ने उन्हें नींद से जगाया और वे उठ बैठने पर उनसे पुछा की तुने लंगोटीवाले बाबा की जय ऐसा क्यों कहा ? तब उन्होने सभी को बताया की, बाबा हनुमानजी सिरपर चांदी का ताज (मुकुट) पहने, दाहिने हाथ में चांदी की गदा लेकर घर के चारों ओर घुम रहे है। ऐसा दृश्य सपने में देखा। बाद में उन्होने बाबा को यह हकीकत बतायी दूसरा हवन समाप्त होने पर बाबाने विचार किया की परमेश्वर अब हमारी सुरक्षा करने हेतु तत्पर है।

             इस त्रिताल हवन में श्री. जागोबाजी जगह की साफ सफाई करना। रंगोली रचना इत्यादि काम करते थे। तो हम सबकी आई (माता) सौ. वाराणसीबाई प्रसाद तैयार करती थी, इस प्रकार सात दिन त्रिताल हवन कर सातवे दिन सभीने भोजन करके उत्सव मनाया और बाबाने परमेश्वर की कृपा प्राप्त की।

             इस परमेश्वरी कृपा का लाभ वे अन्य लोगो को भी कर देते थे। उनके यहाँ जो कोई दुःखी, परेशान लोग आते थे उनके दुःख मंत्र से तीर्थ बनाकर तथा मंत्रोच्चार से फुंक मारकर दूर करने लगे।

नमस्कार..!

लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में  "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।

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Saturday, April 25, 2020

प्रकरण क्रमांक:- (२) "भगवत प्राप्ती का मार्ग मिला"

                     

                "मानवधर्म परिचय पुस्तक"

"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।
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                           प्रकरण क्रमांक (२)

              "भगवत प्राप्ती का मार्ग मिला"


"मानवधर्म परिचय पुस्तक"
प्रकरण क्रमांक:- (२) "भगवत प्राप्ति का मार्ग मिला"

        सन १९३३ में पुरानी जगह रहते समय मोहल्ले में पडोसियों से हमेशा झगडा होता था। इसलिए ठुब्रीकर घराना वहाँ उब गया था । इसलिए उन्होने दूसरी ओर मकान खरीदने की सोची। रंभाजी रोड, टिमकी में रामेश्वर तेलघाणी के पीछे वाला झुनके सावकार का मकान बिकाऊ था। वह मकान ठुब्रीकर बंधुओं ने लेने का निश्चित किया और मकान मालिक से सौदा किया। इससे पहले उस मकान के बारे में ऐसी हकीकत थी की वह मकान शैतानी है। उस मकान में भूतबाधाएँ हैं। एक मुसलमानने उस घर में पांव रखते ही वह मर गया। इसलिए वह मकान न खरीदे ऐसा बताकर उस मोहल्ले के लोगोंने उन्हें मकान लेने से विन्मुख करने का प्रयत्न किया। बाबा का घराणा हिन्दू संस्कृतिनुसार गुरुमार्गी था। उनके गुरु श्री. यादवराव महाराज, धापेवाडा वाले थे बाबा के बुजुर्गो ने विचार किया कि हमने होम हवन, पुजा पाठ करने पर वह भुतबाधाएँ नष्ट होगी । और हम सुख से रह सकेंगे। ऐसा पक्का विचार कर उन्होने वह मकान खरीदा इस समय बाबा बारह साल के थे। फिलहाल बाबा जिस घर में रहते है यही वह मकान है।

          निश्चित किये अनुसार उस मकान में गृहप्रवेश के पूर्व उन्होने मकान की शांति करने हेतु गुरु मंत्रोसे होम हवन, पुजा पाठ किया और खुशी से उस मकान में रहने आये । आसमान से गिरे और खजुर में अटके इस कहावत के अनुसार इस मकान में रहने को आने के बाद किसी को भी सुख-शांति नही मिलती थी। वे सालभर भी सुखी नही रह सके। घर के लोगों को सतत् स्वप्नविकार होता था। खाना खाते समय सिढीयों की आवाज सुनाई देती। सिढीयों पर कोई निरंतर चल रहा है ऐसा आभास होता था। घर के सामने रातभर कुत्तो का भौंकना जैसे भुतबाधाओं के प्रकार चालु थे। उनके घर में पैदा हुए बच्चे भी बाहर खेलते समय कुत्तो समान भौंक कर मर जाते। 

        इस तरह संपूर्ण परिवार दुःखी था। बाबाकें पिता श्री. विठोबाजी इन्होने बहुत इलाज किया। मांत्रिक, तांत्रिक लोगों से इलाज कराया। शरीर में देवी- देवता प्रवेश करने वाले लोगों से इलाज कराया। कई मनौतियाँ की, विभिन्न तरह के इलाज करके भी‌ परिवार में समाधान व शांति नही मिलती थी। हजारों रुपये खर्च हुए थे। भूत बाधाओं के कारण कई प्राण गरवाँ चुके थे। इस कारण संपूर्ण परिवार त्रस्त हुआ था। परिवार में शांतता नही थी। बाबा जुमदेवजी हनुमानजी की सेवा करते रहते थे। इसलिए उन्हें हनुमान चालिसा कंठस्थ था। इसमें ऐसा निर्दिष्ट है की जहाँ हनुमान चालिसा पढा जाता वहाँ भूत नहीं रह सकते। तब भूतबाधाओं का विनाश होने हेतु बाबा रोजाना दो-तीन बार हनुमान चालिसा पढते थे। फिर भी घर में सुख-समाधान नही था। छोटे बच्चे हमेशा बीमार होते और उन्हें कुछ न कुछ दिखाई देता। इन्ही भूतबाधाओं के कारण उनके घरमें उनके रिश्तेदार आने की हिम्मत नही करते थे। यह भूतबाधाओं का खेल लगातार बारह साल चालू था।

             १९४५ साल के नवम्बर माह की घटना, बाबा का रोजाना दो-तीन बार हनुमान चालिसा पढना शुरु था। उसी के साथ हनुमानजी को बिनती करते थे की बाबा हनुमानजी आप कुछ तो भी योग दो और यह दुःख दूर करो।

         एक दिन बाबा के अनुज (छोटे भाई) मारोतराव घर में अकेले सो रहे थे। रसोईघर में कोई नही था और बाबा बरामदे में बैठे थे। बाबा बरामदे से जब रसोईघर में गये तब मारोतराव उठकर बैठे थे। तब बाबाने मारोतरावजी को पुछा कि तू क्यों बैठा है? तब मारोतरावजी ने पुछा की मेरे पांव को किसने हिलाया? और मुझे किसने जगाया? तब बाबाने फिर से उनसे कहा की मैं तो अभी घर में आया और अंदर तो कोई भी नही है। फिर तेरे पांव किसने हिलाये थे मुझे मालूम नही। इतना कहकर बाबा आश्चर्यचकित हुए तत्पश्चात उन्होने इसका पता लगाने के लिए मांत्रिक के पास जाने का विचार किया।

           बाबा मांत्रिके के यहाँ जाने की तैयारी में ही थे, की तभी बाबा हनुमानजी को बिनती किये अनुसार उन्हें योग प्राप्त हुआ और उनके यहाँ कभी न आने वाला एक साधारण व्यक्ती उनके घर आया। उसने बाबा को पुछा की, तु कहाँ जा रहा है? तब बाबाने उपरोक्त घटित प्रकरण उस व्यक्ती के पास कथन किया। उन्होने उसे कहाँ, मैं मांत्रिक के यहाँ जा रहा हूँ। यह सुनकर उस व्यक्ती को दया आयी। उसने बाबा से कहाँ तुम क्यों जाते हो? मेरे पास परमेश्वरी कृपा प्राप्त करने का एक मंत्र है। वह एक सन्यासीने दिया हुआ मंत्र है। उनका विधी करने से परमेश्वरी कृपा संपादित कर सकते है एवं सभी दुःखों का विनाश होता है। यदि उस मंत्र से मैं किसी को भी तीर्थ (मंत्रोच्चारित जल) बनाकर देता हूँ तो उसके दुःख दूर होकर वह अच्छा होता है। ऐसे मुझे कई अनुभव आये है। तब बाबाने उस व्यक्ती से पुछा की यह संन्यासी का मंत्र आपके पास कैसे आया? क्योंकि आप तो संन्यासी नही लगते। तब उसने जवाब दिया की, मेरे पिता एक संन्यासी के साथ रहते थे। उस संन्यासी के मृत्युपरान्त मेरे पिता उसके पास के सारे ग्रंथ घर ले आये। पिताजीने हनुमानजी के इस मंत्र के व्दारा अनेकों के दुःख दूर किये। यह करते हुए वे दोनो आँख से अंधे हो गये। मैंने स्वयं इस मंत्र का विधी कभी नहीं किया। जिस किसने भी यह विधी किया और करने का प्रयत्न किया उनमें से कुछ विधी करते हुए मर गये, तो कुछ पागल हुए। तत्पश्यात बाबा सोचने लगे और उन्होने मांत्रिक के यहाँ जाना। निरस्त किया। कुछ देर रुककर वह मंत्र और उसका पता बाबाने उस व्यक्ती से लिखा लिया। वह व्यक्ती मौदा इस गाँव का रहनेवाला था। उस मंत्र से तीर्थ तैयार कर के मारोतराव को पीने के लिये दिया। तीर्थ पीने के बाद मारोतराव को समाधान मिला। इस कारण बाबा के मन में विचार आया की वे स्वयं या उनके परिवार के किसी व्यक्तीने इस मंत्र का विधी पुरा करना चाहिए और परिवार को हो रहे दःखो से मुक्त कराये। इस तरह बाबा को भगवत् प्राप्ति का मार्ग मिला। उस समय बाबा युवावस्था में अर्थात मात्र चौबास
वर्ष के थे।

नमस्कार..!

लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में  "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।

नमस्कार..!

टिप:- ये पोस्ट कोई भी काॅपी न करें, बल्की ज्यादा से ज्यादा शेयर करे।

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Thursday, April 23, 2020

|| सकाळची विनंती ||

                    ‌                                          ॥ सकाळची विनंती ॥

             !! भगवान बाबा हनुमानजी को प्रणाम !!
          !! महानत्यागी बाबा जुमदेवजी को प्रणाम !!
                           !! परमात्मा एक !!
     
    भगवान बाबा हनुमानजी मी जिवनात केलेली सर्व पूजा व जुने विचार बंद केले. मी मरिन किंवा जगीन जिवनात एकच भगवान बाबा हनुमानजी लाच मानीन.
     मी माझ्या कर्माने चुकलो याची मला क्षमा द्यावी. बाबांचे आदेश सत्य, मर्यादा, प्रेम चार तत्त्व, तीन शब्द व पाच नियम जिवनात पाळीन. असे मी सत्य वचन देतो. याला जिवनात कधीही विसरणार नाही.
         
            !! भगवान बाबा हनुमानजी की जय !!
         !! महानत्यागी बाबा जुमदेवजी की जय !!
                       !! परमात्मा एक !!
            सत्य, मर्यादा, प्रेम कायम करने वाले
             अनेक वाईट व्यसन बंद करने वाले
                    !! मानवधर्म की जय !!

प्रकरण क्रमांक: (१) "जन्म व जीवन"

               "मानवधर्म परिचय पुस्तक"

"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।
परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर, नागपूर


               
                          प्रकरण क्रमांक (१)

                         "जन्म व जीवन"


प्रकरण क्रमांक:- (१) "जन्म व जीवन"


            नागपूर शहर महाराष्ट्र राज्य की उपराजधानी है और भारत देश के सीमानुसार मध्यभाग में बसा हुआ शहर है। यह एक ऐतिहासिक शहर है। इस शहर में गोलीबार चौक नामक पिछडा समझनेवाला प्रसिध्द इलाका है। ब्रिटीश शासन के दौरान भारत देश को आजाद करने हेतु कई भारतियोंने अनेक प्रकारके सत्याग्रह किये। उन्हींमें से एक झंडा सत्याग्रह सन १९२१ में किया गया था। उसका एक हिस्सा समझ इस क्षेत्र में सत्याग्रह हुआ। उनमें नागपुर वासियोंने लिया था। इस सत्याग्रह में लोगों ने अग्रेंजो के खिलाफ उन्हे यह देश छोडकर जाने का नारा दिया गया था तब अंग्रेजो ने इन सत्याग्रहियों को तितर-बितर करने के लिए उनपर बंदुक से गोलीयाँ चलाई थी। इन शुरोंने वह गोलीयाँ अपने सीने पर झेल कर देश के लिए आत्म बलिदान किया और वे शहीद हुए तब से इस क्षेत्र (भाग) को गोलीबार चौक के नाम से जानने लगे, आज भी इस चौक में इन शहीदों की स्मृती में शहीद स्तम्भ बनाया गया है।

           यह गोलीबार चौक भविष्य में मुहल्ले में प्रचलित हुआ। इस मुहल्ले में हिंदु संस्कृति के हलबा इस आदिवासी जनजाति के लोग बडी संख्या में रहते है। इस चौक के बाजु में आदिवासी हलबा जमात के ठुब्रीकर खानदान के सगे भाई रहते थे उनके नाम थे - तानबा, महादेव, विठोबा एवं बालाजी। उनका मुल व्यवसाय बुनकरी (साडीयों बुनना) था। चारों भाई संयुक्त परिवार पध्दतिनुसार एक साथ रहते थे घरके हालात अति गरीबी के थे। रोज बुनाई कर शाम को मजदूरी मिलने पर घर गृहस्थी चलाते थे।

          ऐसे अती गरीबी हालात परिवार में दिनांक ३ अप्रैल १९२१ को श्रीमान विठोबाजी राखडु ठुब्रीकर तथा सरस्वतीबाई इस दंपत्ती के यहाँ महानत्यागी बाबा जुमदेवजी का जन्म हुआ। इस दंपत्ती के बाबा यह चौथी संतान है। बाबा के तीन बडे भाई - बाळकृष्ण, नारायण एवं जागोबाजी तथा एक भाई मारोती सबसे छोटे थे। ऐसी पांच संतान इस दंपत्ती को थी। बाबा के बचपन का नाम जुम्मन था।

           घर की स्थिती अत्यंत गरीबी की थी और संयुक्त परिवार के कारण बाबा की शिक्षा मराठी चौथी कक्षा तक हुई। खर्च अधिक और आमदनी कम होने से बाबाने आगे की पढाई बीच में ही छोड़ घर के हालात में मदद करने का निश्चय कर उन्होंने उम्र के सिर्फ बारहवे साल में पारिवारिक बुनकरी के व्यवसाय की शुरूआत की।

         बचपन से ही बाबा का उमदा स्वभाव था। चेहरे पर तेज था, गठा हुआ शरीर था। बचपन से ही उनमें चुस्तीस्फुर्ती थी। वे बचपन से ही नितिमत्तात्मक व्यवहार करते। वे दयालु स्वभाव के थे। तथा उनका बचपन से ही परमेश्वर पर अप्रतीम विश्वास था।उन्हें बचपन में हनुमान चालीसा पढ़ने का शौक था वे रोज शाम को हनुमान चालिसा पढते रहते। प्रायमरी स्कुल में पढते समय स्कुल से लौटने के पश्चात रसोई घर का दरवाजा बंद रहने से वे दरवाजे की दरार से अंदर झाँकते रहते, तब उन्हें उस कमरें में भूरे रंग का व्यक्ती दिखाई देता तथापि उस व्यव्ती को विशाल एकही आँख होने बाबत उन्हें हरदम दिखाई देता था।

           पुराने जमाने में देह यष्टी (शरीर सौंष्ठन) को बड़ा महत्व था। इसलिये जगह-जगह अखाडे बनाये गये थे। इन अखाडों में छोटे बड़े लड़के व्यायाम हैतु जाते रहते। इस प्रकार बाबा को भी अपने बालपण में अखाडों में जाने का शौक लगा और देखते ही देखते वे उस परिसर में पहलवान के नाम से प्रसिध्द हुए। उन्हें कुश्ती खेलने का भी शौक था।

            बाबा का विवाह उनकी उम्र के सतरवे साल यानि सन १९३८ में मई महिने में नागपूर जिल्हा के खापा गांव के प्रतिष्ठीत निवासी श्रीमान बापुजी बुरडे इनकी सुकन्या और तडफदार व अप्रगण्य बुनकर नेता श्री सोमाजी बुरडे इनकी बहन वाराणसीबाई उनके साथ संपन्न हुआ।

         बाबाने विवाहोपरान्त उम्र के उन्नीसवे साल बुनकरी का व्यवसाय छोड़ दिया और वे सेढ केसरीमल के यहाँ वहीखाता लिखने का काम मासिक तीस रुपये वेतन पर करने लगे। दुकान मालिक मारवाडी समाज के थे। सेठ केसरीलाल की मृत्यू के बाद उनका लडका मदनसेठ पुगलिया उनका मामा सेठ सरदारमल की देखभाल में दुकान का
कारोबार संभालने लगे। बाबाने वहाँ पाँच-छ: साल नौकरी की। बाबा जहाँ नौकरी करते है वह सोने चांदी की दुकाना थी।

             एक दिन बाबा को दुकान साफ करते समय दस तोले का सोने का हार दुकान की आलमारी (कपाट) में रखा हुआ दिखा वह हार खुला देखकर बाबाकों धक्का लगा। बाबाने वह हार सेठ सरदारमल के घर पहुँचा दिया। उन्होने डागाजी को बुलाया, वह उनका भाँजा था। उन्होंने डागाजी को हार के बारे में पुछताछ की और उसे एक जोरदार थप्पड लगाया। उन्होने उससे कहाँ की यह (बाबा) इमानदार है इसलिये हार लाकर दिया, अन्यथा यह हार चोरी हुआ होता अथवा गुम हो गया होता, तब इसका कौन जिम्मेदार रहता? इससे बाबा के सत्य और इमानदारी यह गुण दिखाई दिये। तब से इस घर के लोग बाबा की ओर इमानदार समझकर देखने लगे। मदनसेठ का छोठा भाई अनाप-शनाप पैसा खर्च करता है यह बाबा को मालुम था। इसलिए बाबाने स्वयं विचार किया की यद्यपी आज इमानदार कहते है, लेकीन कल भी यही स्थिती होगी यह कैसे कह सकते है? नौकर आदमी इमानदार होकर भी कल प्रसंगवश यही लोग भाँजे का पक्ष लेकर उसे बदनाम कर सकते है। ऐसे विचार मन में आते ही केवल सत्य को संजोए रखने के लिए बाबा के मन में उन विचारों ने जोर पकडा और उन्होने वह नौकरी छोड दी तथा पूर्ववत् वे साडीया बुनने का व्यवसाय करने लगे।

            बाबा दिनमें एक नौ वार रेशम की साड़ी बुनते थे। वह साडी इतनी अच्छी होती थी दुकानदार लोग माल बेचने के लिए ग्राहकों को दिखाने हेतु उसे उपर रखते थे लेकीन। हातमाग के व्यवसाय को मिलों के कारण मंदी आने लगी। बाबा के बड़े साले श्री. सोमाजी बुरडे विदर्भ बुनकर कैद्रिय सोसायटी, नागपूर के अध्यक्ष थे। इसलिए उन्होने बाबा को सुपरवाइजर की नौकरी दिलायी। बाबा की कामों के प्रति चतुराई और महत्ता देखकर उन्हें सोसायटी की ओर से गडडी गोदाम, नागपुर में पैरो से चलाये जाने वाली चादर बनाने की मशीन की ट्रेनिंग हेतु भेजा गया। बाबाने वहाँ ट्रेनिंग पुर्ण की। पिली मारबत (एक मोहल्ला) के पास सोसायटी का एक कारखाना था। उस कारखाने में बाबा काम करने लगे। बाबा इतने होशियार थे की अकेले स्वयं किसीकी मदत न लेते, संपूर्ण मशीन खोलकर उसके अलग-अलग पार्टस् कर फिर से पूर्ववत स्थितीमें उसकी फि्टींग करते थे। इसी दौरान बाबा ने दैवी शक्ती भी प्राप्त की थी।

          एक दिन इसी कारखाने में काम करनेवाले वासुदेव नंदनवार नामक बाबा के पडोस में रहनेवाले एवं बाबा के मित्र रहे गृहस्थ को काम करते समय सतत जुलाब और उलटीयाँ होने लगी। तब अपने मित्र की हो रही दुर्दशा बाबा से देखी नही गयी। इसलिये उन्होंने उसे पास बुलाकर एक गिलास में पानी लेकर उसे ग्यारह बार फुंक मार कर तीर्थ दिया जिस कारण उसे होने वाली तकलीफ यकायक बंद हुई। तब से बाबा के पास कोई शक्ती है यह लोगों को मालुम हुआ। बाद में बाबानें उस कारखाने की नौकरी छोड़ दी और वे महानगरपालिका में ठेकेदार की हैसियत से काम करने लगे।

             यह घटना १९७६ की है नागपुर के दिघोरी क्षेत्र में महानगरपालिका की ओर से नहर खोदने का कार्य (ठेका) बाबा को मिला था। वह काम करते समय उन्हें बहुत परेशानी हुई। उन्हे उस जगह भी बेईमानी दिखने लगी। इसलिये बाबा का मन उस बेईमानी से उबने लगा। उनके स्वाभिमानी स्वभाव को वह नहीं भाता था। इसी दौरान बाबा के सुपुत्र डॉ. मनो ठुब्रीकर इन्हे व्हर्जिनिया मेडीकल सेंटर, व्हर्जिनीया (अमेरिका) यहाँ नोकरी लगी थी। उन्हे प्रथम वेतन मिलनेपर उन्होने बाबा से कहाँ की अब आप काम बंद कर परमेश्वर के मानव जागृती के कार्य करे। बाबानें सोच विचार कर और वर्तमान में घटित बेईमानी के व्यवहार से उब कर उन्होने ठेकेदारी का धंदा बंद किया। तत्पश्चात उन्होंने आध्यत्मिक कार्यों के लिए अपना संपूर्ण जीवन अर्पण किया।

            बाबा जब काम करते थे तब वे मित्रों के साथ रहकर भी खुद का और उनका खर्च स्वयं ही करते थे वे किसी को भी खर्च नहीं करने देते। बाबा सन १९७६ से भगवत् कार्यों के लिए खुद के पैसों से गांव देहात में धुप, बारिश की पर्वा न करते, पैदल, सायकिल, बैलगाडी, बस जो भी मिलेगा उस साधन से यात्रा कर मानव जागृती के कार्य निष्काम भावना से निरंतर कर रहे है। लोगों के विभिन्न प्रकार के दुःख, कष्टों का
नि्वारण कर रहे है। वे गुरुदक्षिणा नही लेते। आत्मा का अनादर न हो इसलिए किसी को अपने पैर पड़ने नही देते।

             आध्यात्मिक कार्य के व्दारा अत्यंत गरीब, श्रमिक लोगों को सुख, समाधान दिलाने के बाद उन्हे जीवन चलाने के लिए उनकी गृहस्थी उच्च स्तर पर लाने के लिए उन्होने अपना सारा ध्यान सामाजिक कार्यों की ओर मोडकर सहकारी स्तरपर बैंक बहुउ्देशिय ग्राहक भंडार, दुग्ध डेअरी, मानव मंदिर आदि की स्व- श्रमो से निर्मिती की यह सब करने पर भी उन्होने खुद की गृहस्थी के लिए कभी भी इन संस्थाओं का लाभ नहीं
लिया। उन्होने आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए हमेशा त्याग किया है। इस कारण उन्होने अपने समान अनेक शिष्य तैयार किये है और अपने समान बनाने में कोई समयसीमा नही होती ऐसी कहावत को सिध्द किया है। इसलिये उनके शिष्यों ने उन्हें "महानत्यागी" उपाधी से सुशोभित किया है।

           बाबाने गृहस्थी सम्भालते हुए परमार्थ साध्य किये। बाबा आज भी उम्र में इकहत्तर वर्ष के होते हुये भी मानव जागृती के कार्य के लिए निरंतर दौरा कर रहे है। बाबा आज अपना जीवन ऐश्वर्यपूर्ण बिता रहे है। "देगा वही पायेगा" इस कहावत के अनुसार प्रारंभ में बाबाने कडी मेहनत की जिससे अच्छे फल भगवान उन्हे दे रहे है।


लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में  "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।

नमस्कार..!

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🔶 उपर लिखीत पोस्ट "मानवधर्म परिचय" पुस्तक ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।

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