"मानवधर्म परिचय पुस्तक"
"मानवधर्म परिचय पुस्तक" ( हिंदी ) सुधारित द्वितीय आवृत्ती से है।
परमपूज्य परमात्मा एक सेवक मंडळ वर्धमान नगर, नागपूर
प्रकरण क्रमांक (३)
"परमेश्वरी कृपाप्राप्ती"
प्रकरण क्रमांक:- (३) "परमेश्वरी कृपाप्राप्ती"
"मानवधर्म परिचय पुस्तक"
प्रकरण क्रमांक:- (३) "परमेश्वरी कृपा प्राप्ती"
बाबाको हनुमानजी के मंत्र की प्राप्ति के बाद ऐसा लगने लगा की, पांच भाईयों में से किसी एक ने इस विधी को पुरा करना चाहिए और परमेश्वरी कृपा प्राप्त करनी चाहिए। यदि कोई भी तैयार नही हुआ तो मैने स्वयं यह विधी करना चाहिए, इस उद्देश्य से दो तीन दिन बाद पांचो भाईयों की बैठक उन्होने की बैठक उन्होंने बुलायी। सभी लोग इकठठे होने पर बाबाने वह मंत्र सब के समक्ष रखा और चारों भाईयों को उन्होने कहा की इस मंत्र से हमें परमेश्वर को जगाना है। और उसकी कृपा प्राप्त करना है। इसके लिए विधी करना आवश्यक है। इसलिए यह मंत्र मैने आप सबके समक्ष रखा है। यह मंत्र जिसने मुझे दिया उसने विधी की नही तथापि उसने यह भी बताया की यह विधी करते समय इसका ठीक से पालन न होने पर कुछ लोग मर गये तो कुछ पागल हुए। लेकीन इस मंत्र का विधी ठीक से साध्य होने पर घर के सभी कष्ट नष्ट होकर पूरे परिवार को सदैव सुख और समाधान मिलेगा। इतनाही नही, इस मंत्र से दूसरों के दूख भी दूर किये जायेंगे। हम पाँच भाई है, कल किसीने मुझ पर यह आरोप न लगाये की मैने मंत्र मिलने पर उसे गुप्त रखा और स्वयं ही उसका प्रयोग किया। जिसकी इच्छा हो, वह यह विधी करें। मेरी पुरी अनुमति है।
तत्पश्चात वह मंत्र एक के बाद एक सभी भाईयों ने पढा और सबके मुख से एकही विचार निकला की यह विधी इकतालिस दिन करना होगा। वह हनुमानजी का होने से बहुत मुश्किल है और विधी पूर्ण करना ही होगा। उसे बीच में छोड नही सकते। यदि वह पूरी नही हुई तो हम तो मरेंगे या फिर पागल होंगे ऐसा हमें डर लगता है। इसलिए यह विधी हम नही कर सकेंगे। यह सुनकर बाबा पलभर दंग रह गये। कुछ देर बाद उन्होने चारों भाईयों को कहा की हम पाँच भाई है, आप लोगों को डर लगता है तो आप न करें लेकीन एक भाई मर गया और हम केवल चारही भाई है ऐसा समझो और आप लोग मेरे परिवार का निर्वाह करने की जबाबदारी लो ऐसी उन्होने बिनती की उस समय बाबाके परिवार में सिर्फ आई (बाबा की पत्नी) और पुत्र मनो यह दोनों ही थे। उस समय बाबा ने यह संकल्प लिया की, मै यह विधी करके भगवत की प्राप्ति करुंगा अथवा मरुंगा लेकीन पिछे नही हटुँगा। इससे बाबा के स्वभाव का दृष्टनिश्चयता यह गुण दिखाई देता है।
इस प्रकार निर्णय लेकर घर के लोगों को घर चुने से साफ करने कहा और विधी प्रारंभ करने का दिन और तारिख निश्चत की वह दिन सोमवार था और २६ नवम्बर १९४५ यह तारीख थी।
निश्चित किये दिन अनुसार बाबा ने भोर में ही स्नान किया। उनके मकान के पास हनुमानजी का मंदिर था। उस मंदिर में पानी, अगरबत्ती और कपूर लेकर गये। वहाँ हनुमानजी का पानी से स्नान कराकर अगरबत्ती कपूर जलाकर इक्कीस प्रदक्षिणा की यह कार्यक्रम सुर्योदय से पूर्व किया। इस प्रकार इकतालिस दिन के विधी (साधना) का प्रारंभ किया।
"पहिली परिक्षा और प्रतिसाद"
विधी के इक्कीसवे दिन दोपहर में बाबा घर में थे, उस समय उनके जेष्ठ बंधु श्री. नारायणराव उनके यहाँ आये और वह बताने लगे की " मेरी लड़की की तबियत बहुत खराब है। कुछ समझ में नहीं आता फिर भी तू मेरे साथ चल उसे देख और उसे हो रहे कष्टों से कैसे भी मुक्त कर।" तब बाबाने उन्हे बताया, "भैया मुझे कुछ भी नही
समझता। मैं केवल भोर में बाबा हनुमानजी को कपूर लगाकर मंत्र पढता हूँ" इतना कहकर बाबा उसके साथ उसके घर गये वे बाबा के मकान के सामने ही रहते थे ।
बाबाने उस लडकी को देखा तब उसे देखकर उन्हे बहुत दुःख हुआ। उस लडकी के संपुर्ण शरीर में बड़े बडे फोडे हुए थे। और वे फुटकर उससे संपुर्ण शरीर में खुन बह रहा था। संपूर्ण शरीर में लाल चिटियाँ लगी थी। उस लडकी के शरीर का छोटा सा हिस्सा भी खाली नही दिख रहा था। वह चिटियों से पूरा घेरा हुआ था। यह देखकर बाबा बहुत घबराये। वे चिंताग्रस्त हुए उनके मन में विचार आया की बाबा हनुमानजी को प्रसन्न करने हेतु विधी करना बहुतही मुश्किल है, ऐसी जो मान्यता है वह सच होगी। अब परमेश्वर हमें यह विधी पुर्ण करने नही देगा। विधी तो पूरी करना ही है, अन्यथा क्या कष्ट आयेगा, कहना कठीण है। एक तरफ खाई है तो दुसरी और कुआँ इस कहावत के अनुसार बाबा के समक्ष हालात निर्माण हुए थे, फिर भी बाबा का निर्धार मजबुत था वे नही डगमगाएँ। बाबा वहाँ कुछ भी न बोले और ना ही कोई उपचार किये बगैर घर वापस आये।
दुसरे दिन यानि विधी के बाईसवे दिन, नियत समयानुसार बाबा विधी करने मंदिर गये। वहाँ उन्होने बाबा हनुमानजी की मुर्ती का हमेशा की तरह स्नान कराया, कपूर एवं अगरबत्ती लगायी और बिनती की कि हे बाबा हनुमानजी आपने मुझ पर बहुत बडी विपत्ती लाकर रखी है, मै आपसे बिनती करता हूँ की मुझे पहले अपने चरणों में विलिन करें अन्यथा उस लडकी को मुक्त करें। तत्पश्चात इक्कीस प्रदक्षिणा लगाकर घर आये बाबा के मन में उस दिन कोई भी विचार नही आया था उनका वह दिन ऐसे ही बिता।
तेईसवे दिन बाबा सुबह-सवेरे (भोर) विधी निपटाकर घर आकर बाहर के कमरे में दरवाजे के पास ही बैठे थे। जिस लडकी को कष्ट था, वही लडकी उनके घर के आंगन में खेल रही थी। बाबा का ध्यान उस लड़की की ओर गया। उसे देखकर बाबा विस्मित हुए उस लडकी के सारे फोडे ठीक हए थे, यह देखकर बाबा को खुशी हुई। इस प्रकार परमेश्वरने बाबा की प्रथम परिक्षा ली और बाबा का परमेश्वर के प्रति रहनेवाला अत्याधिक प्रेम और श्रध्दा देखकर उनकी बिनती को परमेश्वर ने प्रतिसाद दिया। बाबा को पहिली सफलता मिली, परमेश्वर की कृपा प्राप्त करने के बाबा के प्रयत्न साकार होने की शुरुवात हुई। इस प्रकार बाबाने इकतालिस दिन का विधी पूर्ण किया तथा बयालिसवे दिन बाबानें परमेश्वर को शक्कर का भोग (नैवेद्य) लगाकर उसकी समाप्ति की। प्रसाद सबकों बांटा वह दिन रविवार ६ जनवरी १९४६ होकर बाजार का दिन था। इस समय बाबा सिर्फ २५ वर्ष के थे। इससे बाबा का एक और गुण ध्यान में आता है की परमेश्वर के विषय में उनके मन में अथाह आत्मियता और लगन थी।
बाबांने विधी समाप्त करने के बाद उसी दिन वे जिस व्यक्ती ने उन्हें मंत्र दिया था। उसके पास गये, उसने बाबां का मेहमान के नाते आदरतिथ्य किया। कुछ देर बैठने के बाद बाबांने उनसे कहा की इकतालिस दिन का विधी काल पूर्ण हुआ। और आज बयालिसवे दिन उस विधी की समाप्ति की। विधी सरलता से पूरा हुआ ऐसा कहकर बाबाने अगला कार्य बताने हेतु उन्हें विनती की।
अगले कार्य के बाबत बताते हुए उस व्यक्ती ने बाबा से कहा की, हररोज एक बार इस प्रकार ७,११,२१,३१,४१,५१,६१,७१,८१, ९१ और १०१ दिन उसी मंत्र से १०८ बार मंत्र कहकर उतनी ही बार हवन में घी और हवनपुडा इसकी आहुती डालनी पड़ती है। लेकीन वह संन्यासी त्रिताल (एक रात में तीन बार) हवन करता था। उसका विधी ऐसा की हवन सुर्योदय पूर्व समाप्त होने चाहिए। जगह साफ करना, स्नान करना, हवन की रचना कर १०८ बार मंत्रोच्चार करके आहुती डालना। पहला हवन समाप्त होते ही दूसरा हवन शुरु करने के पूर्व वही जगह साफ कर, स्नान कर, उसी जगह पर फिर से हवन की रचना करनी होगी। पुनः प्रसाद करना और हवन का विधी पूर्ण करनी होगी वह समाप्त होते ही तिसरा हवन उसी जगह पर वह जगह साफ कर एवं स्नान कर फिर से प्रसाद बनाके और हवन पूर्ण करना होगा। इस प्रकार तीन हवन एक ही रात में पूरा करना होता है। यह त्रिताल हवन ११,२१ से १०१ दिन करना पडता है।
हवन के लिए आवश्यक सामान याने रानगोवरी (खेत/वन में पाये जाने वाले सुखे गोबर के टुकडे) पिंपल, बरगद, संत्रा, मोसंबी, आम, उंबर, आदि पेड़ों में से पाँच पेडो की लकडियाँ, नरियल, फल, पान, सुपारी, हार, बेल, फुल, आहुती डालने हेतु घी (परिस्थिती को देखते हुए असली या वनस्पती) दही, दुध, केले, बाबा हनुमानजी की प्रतिमा वाला फोटो, गोमुत्र, चंदन चुरा, हवनपुडा, अबीर, सेंदुर, गुलाल इत्यादी सामान लगता है और प्रसाद के रूप में हलवा (कढई) करना पडता है।
यह सब लिखकर बाबा शाम को नागपुर वापस आये। तब घर के सभी लोग उनकी राह देख रहे थे। घर आने पर उन्होने उपरोक्त पूरी जानकारी सब को बतायी और कहा की यह खर्च की बात है। पहले ही हमारी आर्थिक परिस्थिती बहुत खराब है। इसलिए हम दिनभर बुनकरी करके शाम को मजदरी मिलने पर सामान की खरेदी कर रात को त्रिताल हवन करेंगे। उसी तरह त्रिताल हवन के कारण रातभर जागरण होगा इसलिए सभीने जागरण करना जरुरी नही क्योंकी सभीने जागरण किया तो दुसरे दिन बुनकाम न होने से, मजदूरी न मिलने से हवन का सामान न ला सकने के कारण हवन कार्य कर नहीं सकेंगे और हवन कार्य खंडीत होगा। इस पर सभी लोगोंने गंभीरतापुर्वक विचार किया और दुसरे दिन से सात दिन त्रिताल हवन करने का निश्चय किया।
निश्चित किये अनुसार दुसरे दिन सभीने बुनकरी कर शाम को मजदुरी मिलने पर बडी मुश्किल से सामान जुटाया और सायं ७ बजे प्रथम हवन की शुरुवात की। इस मार्ग के सेवक जिस प्रकार हवन की रचना करते है। उसी प्रकार उसकी रचना की और बताये अनुसार हवन कार्य प्रारंभ किया। पहला हवन समाप्त होते ही दुसरा, तिसरा हवन करते हुए पूरे सात दिन तक त्रिताल हवन किया। पहला हवन समाप्त होने पर भोजन करने के बाद में दुसरा हवन रात को ग्यारह बजे शुरु करते तिसरा हवन रातको तीन बजे शुरु करके तडके (भोर) पांच बजे समाप्त करते। पुनः द्सरे दिन दिनभर बुनकरी कर श्याम को सामान जुटाते। इस समय बहुत कष्ट होता था बाबा स्वयं हवन करते थे। उसके अलावा स्वयं ही हवन में आहुती डालते। अन्य किसी को भी हवन में आहुती डालने की अनुमती नही थी। हवन करते वक्त बाबा किसी से भी बात नही करते थे। किसी चीज की आवश्यकता पडने पर इशारा करते। जब कुछ पुछना हो तो स्लेटपर कलम से लिखकर या कागजपर पेन से लिखकर पुछते थे। इसप्रकार बाबानें लगातार सात दिन त्रिताल हवन किया।
"साक्षात्कार एवं प्रचिती"
त्रिताल हवन के पहले ही दिन जब दुसरा हवन कार्य चालु था निश्चित किये अनुसार बाबाके अनुज मारोतराव सोये थे। वह गहरी नींद में सोये हुये ही जोर-जोरसे चिल्ला रहे थे लंगोटी वाले बाबा की जय। यह शब्द जब बाबाके कानों पर पडे तब बाबाने एक कागजपर लिखकर घर के लोगों को उन्हे पुछताछ करने को कहा की ऐसा तू क्यों चिल्लाया? तब बाबा के बड़े भाई श्री. जागोबाजी ने उन्हें नींद से जगाया और वे उठ बैठने पर उनसे पुछा की तुने लंगोटीवाले बाबा की जय ऐसा क्यों कहा ? तब उन्होने सभी को बताया की, बाबा हनुमानजी सिरपर चांदी का ताज (मुकुट) पहने, दाहिने हाथ में चांदी की गदा लेकर घर के चारों ओर घुम रहे है। ऐसा दृश्य सपने में देखा। बाद में उन्होने बाबा को यह हकीकत बतायी दूसरा हवन समाप्त होने पर बाबाने विचार किया की परमेश्वर अब हमारी सुरक्षा करने हेतु तत्पर है।
इस त्रिताल हवन में श्री. जागोबाजी जगह की साफ सफाई करना। रंगोली रचना इत्यादि काम करते थे। तो हम सबकी आई (माता) सौ. वाराणसीबाई प्रसाद तैयार करती थी, इस प्रकार सात दिन त्रिताल हवन कर सातवे दिन सभीने भोजन करके उत्सव मनाया और बाबाने परमेश्वर की कृपा प्राप्त की।
इस परमेश्वरी कृपा का लाभ वे अन्य लोगो को भी कर देते थे। उनके यहाँ जो कोई दुःखी, परेशान लोग आते थे उनके दुःख मंत्र से तीर्थ बनाकर तथा मंत्रोच्चार से फुंक मारकर दूर करने लगे।
नमस्कार..!
लिखने में कुछ गलती हुई हो तो में "भगवान बाबा हनुमानजी"और "महानत्यागी बाबा जुमदेवजी" से क्षमा मांगता हूं।
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